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क्या वेदव्यास एवं वाल्मीकि शूद्र थे ?

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वेदव्यास एवं वाल्मीकि शूद्र थे या नहीं, इस विषय पर समाज में पर्याप्त विवाद होते रहते हैं। इसमें हास्यास्पद बात यह होती है कि दोनों ही पक्षों के अधिकांश लोगों ने या तो मौलिक ग्रंथों को बिना पढ़े ही सुनी सुनाई बातों के आधार पर अपनी धारणा बनाई होती है, अथवा किसी एक ही ग्रंथ के एक ही प्रकरण के ऊपर, जिससे पूर्वापर प्रसङ्गों का पूरा बोध सम्भव नहीं होता है, पर आश्रित होते हैं।

वाल्मीकि एवं वेदव्यास दोनों ही सनातन धर्म में देवतातुल्य पूज्य हैं। सर्वदेवावाहनप्रकरण के अनुसार पुराणों में याजक के लिए जो मन्त्र हैं, उसमें निम्न वर्णन देखें –

अहमावाहयिष्यामि वाल्मीकिं तपसां निधिम्॥
वाल्मीके त्वमिहाभ्येहि वेदोद्धरणतत्पर॥

व्यासमावाहयिष्यामि वेदव्यासं जगद्गुरुम्॥
वेदव्यास त्वमभ्येहि सर्वधर्मप्रदर्शक॥

(विष्णुधर्मोत्तरपुराण, अध्याय – १०६, श्लोक – ९९ एवं १०७)

आवाहन मन्त्र का अर्थ – मैं तपस्या के भण्डार वाल्मीकि का आवाहन करता हूँ। हे वेदों के उद्धार (संरक्षण) में तत्पर वाल्मीकि ! आप यहां आएं।

मैं वेदों का विस्तार करने वाले जगद्गुरु व्यास का आवाहन करता हूँ। हे सभी धर्मों को प्रकाशित करने वाले वेदव्यास ! आप यहां आएं।

मैं आगे इस विषय पर शास्त्रोक्त प्रमाण प्रस्तुत करूं, इससे पूर्व वाल्मीकिकृत योगवाशिष्ठ महारामायण में एक प्रसङ्ग का अवलोकन करें।

अन्तर्धानं गता धात्री वारपञ्चकमुद्धृता ।
मुने पञ्चसु सर्गेषु कूर्मेणैव पयोनिधेः॥
मन्दराकर्षणावेगपर्याकुलसुरासुरम्।
स्मरामि द्वादशं चेदममृताम्भोधिमन्थनम्॥
सर्वौषधिरसोपेतां बलिग्राहस्तदा दिवः।
वारत्रयहिरण्याक्षो नीतवान्वसुधामधः॥
रेणुकात्मजतां गत्वा षष्ठवारमिमं हरिः।
बहुसर्गान्तरेणापि चकार क्षत्रियक्षयम्॥
शतं कलियुगानां च हरेर्बुद्धदशाशतम्।
शौकराजतयैवाप्तं स्मरामि मुनिनायक॥

काकभुशुण्डि जी कहते हैं – हे वशिष्ठ ! मैंने पांच बार इस पृथ्वी को अंतर्धान होते देखा है और पांच बार की सृष्टि में इसे उद्धृत होते देखा है। पांच बार की सृष्टि में मैंने कूर्मावतार के माध्यम से ऐसा होते देखा है। मुझे स्मरण आता है कि मैंने मन्दराचल के घर्षण से देवताओं एवं असुरों को सभी औषधि एवं रसों से परिपूर्ण समुद्र का मंथन, बारह बार होते देखा है, और साथ ही दैत्यराज बलि के द्वारा स्वर्ग का अधिग्रहण करते देखा है। मैंने तीन बार हिरण्याक्ष को पृथ्वी को नीचे ले जाते देखा है, मैंने छह बार भगवान् विष्णु का परशुरामावतार और अधर्मी क्षत्रियों का संहार करते देखा है। मैंने सैकड़ों बार कलियुग और हज़ारों बार भगवान् विष्णु का बुद्धावतार देखा है।

त्रिंशत्त्रिपुरविक्षोभान्द्वौ दक्षाध्वरसंक्षयौ।
दशशक्रविघातांश्च चन्द्रमौलेः स्मराम्यहम्॥
बाणार्थमष्टौ संग्रामाञ्ज्वरप्रमथमन्त्रकान् ।
विक्षोभितसुरानीकान्त्स्मरामि हरिशर्वयोः॥
युगम्प्रति धियां पुंसां न्यूनाधिकतया मुने ।
क्रियाङ्गपाठवैचित्र्ययुक्तान्वेदान्त्यराम्यहम्॥
एकार्थानि समग्राणि बहुपाठानि मेऽनघ।
पुराणानि प्रवर्तन्ते प्रसृतानि युगम्प्रति॥
पुनस्तानेव तानेवमन्यानपि युगे युगे।
वेदादिवत्प्ररचितानितिहासान्स्मराम्यहम्॥

मैंने तीस बार शिव जी के द्वारा त्रिपुरासुर का नाश, दो बार दक्ष के यज्ञ का नाश देखा है। शिव जी द्वारा दस बार इन्द्रों का विनाश देखा है। (शिवजी ने पांच इन्द्रों का विनाश किया था, जो अगले जन्म में पाण्डव बने। इस घटना को दो बार देखने से दस इन्द्रों का विनाश हो गया)। देवताओं को भी क्षुब्ध करने वाले, बाणासुर के निमित्त भगवान् शिव एवं श्रीकृष्ण का ज्वर और प्रमथ गणों से सम्बन्धित मान्त्रिक युद्ध मैंने आठ बार देखा है। अलग अलग युगों में लोगों की बुद्धि अलग अलग स्तर की होती है, अतएव हे मुने ! क्रिया, पाठ आदि की विचित्रता से वेदों को प्रकाशित किया गया है। एक ही अर्थ, किन्तु अलग अलग पाठों से भरे हुए युगों युगों में कई पुराणों का प्रवर्तन हुआ है। फिर अलग अलग युगों में उन्हीं पुराण एवं वेदों के ही समान इतिहासग्रंथों की भी रचना होती है।

इतिहासं महाश्चर्यमन्यं रामायणामिधम्।
ग्रन्थलक्षप्रमाणं च ज्ञानशास्त्रं स्मराम्यहम्॥
रामवद्व्यवहर्तव्यं न रावणविलासवत्।
इति यत्र धियां ज्ञानं हस्ते फलमिवार्पितम्॥
कृतं वाल्मीकिना चैतदधुना यत्करिष्यति।
अन्यच्च प्रकटं लोके स्थितं ज्ञास्यसि कालतः॥
वाल्मीकिनाम्ना जीवेन तेनैवान्येन वा कृतम् ।
एतच्च द्वादशं वारं क्रियते विस्मृतिं गतम्॥
द्वितीयमेतस्य समं भारतं नाम नामतः।
स्मरामि प्राक्तनव्यासकृतं जगति विस्मृतम्॥
व्यासाभिधेन जीवेन तेनैवान्येन वा कृतम्।
एतत्तु सप्तमं वारं क्रियते विस्मृतिं गतम्॥
आख्यानकानि शास्त्राणि निवृत्तानि युगम्प्रति ।
विचित्रसंनिवेशानि संस्मरामि मुनीश्वर॥
भूयस्तान्येव तान्येव तथान्यानि युगे युगे।
साधो पदार्थजालानि प्रपश्यामि स्मरामि वै॥

एक दूसरा महान् आश्चर्यजनक इतिहासग्रंथ है, जिसे रामायण कहते हैं, उस एक लाख की (श्लोक अथवा प्रकार) सीमा वाले ज्ञानशास्त्र को मैं स्मरण करता हूँ। राम के समान आचरण करना चाहिए, रावण के समान मनमौजी नहीं, इस प्रकार से हाथ में रखे फल के समान (प्रत्यक्ष एवं सर्वांगीण) जिस ग्रंथ में ज्ञान भरा हुआ है, उसे पूर्वकल्प वाल्मीकि लिख चुके थे एवं पुनः अभी लिखेंगे। वाल्मीकि नामक जीव के द्वारा, साथ ही अन्य (अगस्त्य, व्यास आदि) के द्वारा भी लिखे जाने वाले इस रामायण को मैं बारह बार (बारह सृष्टियों में) लिखा गया है, इतना मुझे स्मरण है, जिस बात को संसार भूल गया है। दूसरे महान् इतिहासग्रंथ का नाम महाभारत है। इसे पूर्व काल में व्यास ने लिखा था। व्यास नामक जीव, साथ ही अन्य (जैमिनी आदि) के द्वारा भी इसे सात बार लिखा गया है, ऐसा मुझे स्मरण है किंतु शेष जन इसे भूल चुके हैं। हे मुनीश्वर ! अलग अलग युगों में शास्त्रों के बहुत से विचित्र आख्यानक लिखे गए और समाप्त हो गए, जिनका मुझे स्मरण हैं। हे साधो ! मैं माया से निर्मित इस संसार में इस प्रकार अनेकों युगों के अनेकों घटनाओं को बारम्बार देखता और स्मरण करता हूँ।

राक्षसक्षतये विष्णोर्महीमवतरिष्यतः ।
अधुनैकादशं जन्म रामनाम्नो भविष्यति॥
नारसिंहेन वपुषा हिरण्यकशिपुं हरिः।
जघान वारत्रितयं मृगेन्द्र इव वारणम्॥
वसुदेवगृहे विष्णोर्भुवो भारनिवृत्तये।
अधुना षोडशं जन्म भविष्यति मुनीश्वर॥
जगन्मयी भ्रान्तिरियं न कदाचन विद्यते।
विद्यते तु कदाचिच्च जलबुद्बुदवस्थिता॥
(योगवासिष्ठ, निर्वाणप्रकरण, पूर्वार्ध, सर्ग – २२, श्लोक – १२-३३)

राक्षसों के संहार के लिए विष्णु का धरती पर जो अवतार लेते हैं, उसमें राम नाम का यह उनका ग्यारहवां जन्म होगा। जैसे सिंह हाथी को विदीर्ण कर देता है, वैसे ही नृसिंह अवतार में हिरण्यकशिपु को भगवान् विष्णु ने जब मारा था, उस घटना को।मैंने तीन बार देखा है। पृथ्वी के भार को हरण करने के लिए वसुदेव के घर में भगवान् (श्रीकृष्ण) का जो जन्म होता है, वह अब सोलहवीं बार होगा। संसार भ्रम के समान है, और कुछ नहीं। जैसे पानी में बुलबुला होता है, वैसे ही संसार को समझना चाहिए।

उपर्युक्त प्रमाण में यह ध्यान दें कि काकभुशुण्डि जी को जितना याद था, उन्होंने उतना ही बताया है, किन्तु यह बात इतनी ही नहीं है। लोमश, बकदाल्भ्य जैसे योगीश्वर इससे भी आगे की दृष्टि रखते हैं। हम यह भी समझते हैं कि प्रत्येक कल्प, मन्वन्तर अथवा युग में इस प्रकार से घटनाओं की पुनरावृत्ति कुछ समानता एवं भिन्नता के साथ होती है। वेदव्यास एवं वाल्मीकि के सन्दर्भ में भी इस रहस्य को समझकर ही विचार करना चाहिए।

वेदव्यास के विषय में यह ध्यातव्य है कि यह एक पद है। प्रत्येक द्वापर के अंत में विष्णु के आवेशांश से एक योग्य व्यक्ति को वेदव्यास के पद पर बैठाया जाता है। वर्तमान वैवस्वत मन्वतर में अभी तक अट्ठाईस द्वापरों में अट्ठाईस वेदव्यास हो चुके हैं। उनके नाम अनेकों पुराणों में वर्णित हैं किन्तु मैं यहां उदाहरण के लिए विष्णुपुराण के श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो पराशर ऋषि ने मैत्रेय से कहे हैं। यही प्रसङ्ग उदाहरण में देने का कारण है कि इन्हीं पराशर जी के माध्यम से वर्तमान वेदव्यास श्रीकृष्णद्वैपायन जी का प्रादुर्भाव हुआ था, जिनके शूद्र होने का भ्रम फैलाया जाता है।

वेदव्यासा व्यतीता ये ह्यष्टाविंशति सत्तम।
चतुर्धा यैः कृतो वेदो द्वापरेषु पुनःपुनः॥
द्वापरे प्रथमे व्यस्तस्स्वयं वेदः स्वयंभुवा।
द्वितीये द्वापरे चैव वेदव्यासः प्रजापतिः॥
तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थे च बृहस्पतिः।
सविता पंचमे व्यासः षष्ठे मृत्युस्स्मृतः प्रभुः॥
सप्तमे च तथैवेन्द्रो वसिष्ठश्चाष्टमे स्मृतः।
सारस्वतश्च नवमे त्रिधामा दशमे स्मृतः॥
एकादशो तु त्रिशिखो भरद्वाजस्ततः परः।
त्रयोदशो चान्तरिक्षो वर्णी चापि चतुर्दशो॥
त्रय्यारुणः पंचदशो षोडशो तु धनञ्जयः।
क्रतुञ्जयः सप्तदशो तदूर्ध्वं च जयस्स्मृतः॥
ततो व्यासो भरद्वाजो भरद्वाजाच्च गौतमः।
गौतमादुत्तरो व्यासो हर्य्यात्मा योऽभिधीयते॥
अथ हर्य्यात्मनस्ते च स्मृतो वाजश्रवा मुनिः।
सोमशुष्कायणस्तस्मात्तृणबिंदुरिति स्मृतः।
ऋक्षोभूद्भार्गवस्तस्माद्वाल्मीकिर्योभिधीयते॥
तस्मादस्मत्पिता शक्तिर्व्यासस्तस्मादहं मुने।
जातुकर्णोभवन्मत्तः कृष्णद्वैपायनस्ततः॥
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।
एको वेदश्चतुर्द्धा तु तैः कृतो द्वापरादिषु॥
भविष्ये द्वापरे चापि द्रौणिर्व्यासो भविष्यति।
व्यतीते मम पुत्रेऽस्मिन् कृष्णद्वैपायने मुने॥
(विष्णुपुराण, तृतीय अंश, अध्याय – ०३, श्लोक – १०-२१)

पराशर जी कहते हैं – हे मैत्रेय ! अभी तक अट्ठाईस वेदव्यास हो चुके हैं जिन्होंने द्वापर में बारम्बार वेदों के चार विभाग किये हैं। प्रथम द्वापर में स्वयं ब्रह्मा ही वेदव्यास थे। दूसरे द्वापर में प्रजापति वेदव्यास बने। तीसरे में दैत्यगुरु शुक्राचार्य, चौथे में देवगुरु बृहस्पति, पांचवें में सविता, छठे में मृत्युदेव वेदव्यास बने। सप्तम में इन्द्र, आठवें में वशिष्ठ, नवें में सारस्वत, दसवें में त्रिधामा ऋषि वेदव्यास बने। ग्यारहवें में त्रिशिख, और बारहवें में भरद्वाज बने। भरद्वाज के बाद गौतम, गौतम के बाद वे वेदव्यास बने जिनका नाम हर्यात्मा है। उनके नाद वाजश्रवा, फिर कलाओं की क्षीणता वाले चन्द्रमा, शुष्कायण, फिर राजर्षि तृणबिन्दु (रावण के पिता विश्रवा के नाना) वेदव्यास बने। उनके बाद ऋक्ष, फिर भार्गव, फिर वाल्मीकि वेदव्यास बने। वाल्मीकि के बाद मेरे पिता शक्ति और उनके बाद मैं (पराशर) वेदव्यास बने। मेरे बाद जातुकर्ण और उसके बाद मेरे पुत्र (श्रीकृष्णद्वैपायन) वेदव्यास बने। वर्तमान में वेदव्यास यही हैं, इन्होंने ही एक वेद के चार विभाग किये। जब मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायन का कार्यकाल समाप्त हो जाएगा, फिर भविष्य में जो द्वापरयुग आएगा उसमें द्रोणपुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास का पद सम्भालेंगे।

जिन्हें शूद्र कहकर प्रचारित किया जा रहा है, वे वर्तमान के श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास ही हैं। ऐसा दुष्प्रचार करने वाले लोगों ने शायद ही इन पूर्वोक्त वेदव्यासपरम्परा के आचार्यों का नाम सुना होगा। सर्वप्रथम हम इन्हीं वर्तमान वेदव्यास के शूद्र होने की समीक्षा करेंगे।

व्यासमाता देवी सत्यवती को दाशकन्या, केवट की कन्या बताया जाता है, और इस प्रकार फिर वेदव्यास जी को शूद्र सिद्ध करने का कुप्रयास भी किया जाता है। हम सबसे पहले उस प्रसङ्ग को देखते हैं, जहां सत्यवती ने स्वयं भीष्म पितामह को अपने जन्म का रहस्य बताया है।

यस्तु राजा वसुर्नाम श्रुतस्ते भरतर्षभ॥
तस्य शुक्लादहं (शुक्रादहं) मत्स्या धृता कुक्षौ पुरा किल।
मातरं मे जलाद्धृत्वा दाशः परमधर्मवित्॥
मां तु स्वगृहमानीय दुहितृत्वेऽभ्यकल्पयत्।
धर्मयुक्तः स धर्मेण पिता चासीत्ततो मम॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय – ११४, श्लोक – २०-२२)

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ भीष्म ! राजा वसु (उपरिचर उपाधि वाले) जो अत्यंत प्रसिद्ध हैं, उनके वीर्य को एक मछली ने अपने गर्भ में धारण कर लिया था। मेरी उस माता को परम धर्मात्मा दाशराज (केवटों के राजा) ने पानी से बाहर निकाला। उसके गर्भ से मुझे निकाल कर वे अपने घर ले आये और मुझमें पुत्री की भावना की। इस प्रकार धर्मपरायण केवटों के राजा मेरे धर्मपिता हुए।

जब पराशर मुनि ने कामातुर होकर सत्यवती से रमण की इच्छा की, उस समय सत्यवती ने कहा –

कुलेन शीलेन तथा श्रुतेन द्विजोत्तमस्त्वं किल धर्मविच्च ।
अनार्यभावं कथमागतोऽसि विप्रेन्द्र मां वीक्ष्य च मीनगन्धाम्॥
मदीये शरीरे द्विजामोघबुद्धे, शुभं किं समालोक्य पाणिं ग्रहीतुम् ।
समीपं समायासि कामातुरस्त्वं कथं नाभिजानासि धर्मं स्वकीयम्॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कन्ध – ०२, अध्याय – ०२, श्लोक – ११-१२)

सत्यवती ने कहा – हे विप्रेन्द्र ! कुल, शील एवं प्रसिद्धि के आधार पर आप ब्राह्मणों में अत्यंत श्रेष्ठ हैं, धर्म के रहस्य को जानने वाले भी हैं। फिर अनार्य (निन्दित) भाव का आश्रय लेकर मुझे, मछली की दुर्गन्ध से युक्त देख कर भी कैसे आ गए हैं ? हे स्पष्ट एवं सार्थक बुद्धि वाले ब्राह्मण ! मेरे इस शरीर में आपको क्या शुभता दिख गयी कि आप मुझसे सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं, कामातुर होकर मेरे समीप आ रहे हैं, क्या आप अपने धर्म को नहीं जानते ?

दुर्गन्धाहं मुनिश्रेष्ठ कथं त्वं नोपशङ्कसे ।
समानरूपयोः कामसंयोगस्तु सुखावहः ॥
इत्युक्तेन तु सा कन्या क्षणमात्रेण भामिनी ।
कृता योजनगन्धा तु सुरूपा च वरानना ॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कन्ध – ०२, अध्याय – ०२, श्लोक – १७-१८)

हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं दुर्गन्ध से भरी हुई हूँ, फिर आपको क्या मुझसे घृणा नहीं होती ? समान स्तर की सुंदरता वालों में ही कामोपभोग सुखदायी होता है। कन्या के इस प्रकार कहने पर क्षणमात्र में ही ही ऋषि पराशर ने उसे (अपने योगबल से) योजन भर तक कमल के समान सुगन्ध वाली, सुन्दर एवं श्रेष्ठ मुख वाली स्त्री के रूप में परिणत कर दिया। साथ ही गर्भाधान करने के बाद यह वरदान भी दिया –

शृणु सुन्दरि पुत्रस्ते विष्ण्वंशसम्भवः शुचिः॥
भविष्यति च विख्यातस्त्रैलोक्ये वरवर्णिनि।
केनचित्कारणेनाहं जातः कामातुरस्त्वयि॥
कदापि च न सम्मोहो भूतपूर्वो वरानने।
दृष्ट्वा चाप्सरसां रूपं सदाहं धैर्यमावहम्॥
दैवयोगेन वीक्ष्य त्वां कामस्य वशगोऽभवम्।
तत्किञ्चित्कारणं विद्धि दैवं हि दुरतिक्रमम्॥
दृष्ट्वाहं चातिदुर्गन्धां त्वां कथं मोहमाप्नुयाम्।
पुराणकर्ता पुत्रस्ते भविष्यति वरानने॥
वेदविद्‌भागकर्ता च ख्यातश्च भुवनत्रये ।
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कन्ध – ०२, अध्याय – ०२, श्लोक – ३०-३५)

पराशर ने कहा – हे सुन्दरी, सुनो ! तुम्हारा पुत्र अत्यंत पवित्र, विष्णु के अंश से उत्पन्न होगा। हे श्रेष्ठ रूप वाली ! वह तीनों लोकों में विख्यात होगा। पता नहीं, किस कारण से मैं तुम्हारे प्रति कामातुर हो गया। इस प्रकार से मुझे कभी भी मोह नहीं हुआ है। मैंने तो अप्सराओं के दिव्य रूप को देखकर भी सदैव धैर्य ही धारण किया है। फिर विधाता के खेल से मैं तुम्हारे प्रति कामभाव के वश में हो गया, इसमें अवश्य ही कोई कारण होगा ऐसा तुम जाओ, क्योंकि भाग्य का अतिक्रमण करना अत्यन्त कठिन है, दुर्गन्ध से युक्त तुम्हें देखकर भी मेरे जैसा संयमी व्यक्ति मोहित गया। तुम्हारा पुत्र पुराणों का रचयिता एवं वेदों का यथायोग्य विभाजनकर्ता, तीनों लोकों में प्रसिद्ध होगा।

ऋषि पराशर ने उसके कौमार्य को पुनः स्थापित होने का वरदान भी दिया था एवं वेदव्यास जी भी यमुना के किनारे एक लघुद्वीप में जन्म लेकर तत्काल ही बड़े हो गए और विद्वान् हो गए तथा स्मरण करने पर आने का वचन देकर माता को विदा करके स्वयं भी तपस्या हेतु प्रस्थान कर गए। पराशर ऋषि सत्यवती के प्रति अपने इस मोह और व्यवहार से स्वयं भी अचम्भित थे और उन्होंने इसे ईश्वर का कोई विशेष कारणगत खेल समझा। जो ऋषि अप्सराओं को देखकर भी विचलित नहीं हुए, वे सत्यवती पर कैसे मोहित हो गए, इसका कारण हमें निम्न प्रसङ्ग से प्राप्त होता है। ऋषि पराशर योग्य पुत्र की कामना से नर्मदा के दक्षिण तट पर (पारेश्वर तीर्थ में) तपस्या कर रहे थे। तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा –

परितुष्टासि मे देवि यदि देयो वरो मम ।
देहि पुत्रं भगवति सत्यशौचगुणान्वितम्॥
वेदाभ्यसनशीलं हि सर्वशास्त्रविशारदम् ।
तीर्थे चात्र भवेद्देवि सन्निधानवरेण तु॥
(स्कन्दपुराण, अवन्तीखण्ड-रेवाखण्ड, अध्याय – ७६, श्लोक – ०५-०६)

ऋषि पराशर ने कहा – हे देवी ! यदि आप मुझसे सन्तुष्ट हैं और मुझे वर देना चाहती हैं तो सत्य एवं पवित्रता आदि गुणों से युक्त पुत्र का वरदान दीजिये। सभी शास्त्रों में दक्ष, वेदाभ्यास में तत्पर पुत्र मुझे चाहिए। साथ ही इस तीर्थ में आपका सदैव वास हो।

इस प्रकार वैष्णवावतार वेदव्यास जी को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान तो पराशर जी के पास था ही, साथ ही सत्यवती के ही माध्यम से पुत्र होगा यह भी निश्चित ही था। निम्न प्रसङ्ग को संक्षेप में बता रहा हूँ जो अनेकों पुराणों में वर्णित है, उसमें से कुछ उदाहरण दे रहा हूँ।

अग्निष्वात्ता इति ख्याता यज्वानो यत्र संस्थिताः
अच्छोदा नाम तेषां तु कन्याभूद्वरवर्णिनी॥
अच्छोदं च सरस्तत्र पितृभिर्निर्मितं पुरा।
अच्छोदाथ तपश्चक्रे दिव्यं वर्षसहस्रकम्॥
आजग्मुः पितरस्तुष्टा दास्यन्तः किल ते वरम्।
दिव्यरूपधराः सर्वे दिव्यमाल्यानुलेपनाः॥
सर्वे प्रधाना बलिनः कुसुमायुधसन्निभाः।
तन्मध्येमावसुं नाम पितरं वीक्ष्य सांगना॥
वव्रे वरार्थिनी संगं कुसुमायुधपीडिता।
योगाद्भ्रष्टा तु सा तेन व्यभिचारेण भामिनी॥
धरान्न स्पृशते पूर्वं प्रयाताथ भुवस्तले।
तथैवामावसुर्योयमिच्छां चक्रे न तां प्रति॥
धैर्येण तस्य सा लोके अमावास्येति विश्रुता।
पितॄणां वल्लभा यस्माद्दत्तस्याक्षयकारिका॥
अच्छोदाधोमुखी दीना लज्जिता तपसः क्षयात्।
सा पितॄन्प्रार्थयामास पुनरात्मसमृद्धये॥

(पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड, अध्याय – ०९, श्लोक – १२-१९)

अग्निष्वात् संज्ञक जो पितृगण हैं, उनकी श्रेष्ठ रूप वाली अच्छोदा नाम की एक कन्या हुई। उस कन्या ने पितरों के द्वारा निर्मित अच्छोद नामक सरोवर के पास एक हज़ार दिव्य वर्ष (मनुष्यों के अनुसार तीन लाख, साठ हज़ार वर्ष) तक तपस्या की। उसकी तपस्या से सन्तुष्ट होकर पितृगण उसे वरदान देने की इच्छा से आये। वे सभी दिव्यरूप को धारण किये हुए थे, दिव्य माला एवं चन्दन आदि से शोभित थे, सभी अत्यंत पराक्रमी एवं कामदेव के समान सुन्दर थे। उन पितृगणों के मध्य अमावसु नामक एक पितर को देखकर अच्छोदा कामभाव से पीड़ित हो गयी और उसने अमावसु से वरदान में रमण की इच्छा व्यक्त की। अपने पितरों के प्रति इस मानसिक व्यभिचार के कारण उस कन्या की योगशक्ति समाप्त हो गयी और वह पृथ्वी पर गिर पड़ी, उससे पूर्व तपोबल के कारण वह पृथ्वी का स्पर्श नहीं करती थी। इधर अमावसु ने उसके साथ रमण की इच्छा व्यक्त नहीं की, अतः उनके धैर्य के कारण उनकी शक्ति की अमावस्या संज्ञा हुई जो पितरों को अत्यंत प्रिय एवं अक्षय तृप्ति देने वाली है। इधर अपने व्यवहार से अच्छोदा अत्यन्त लज्जित हो गयी और उसने पितरों से अपने उद्धार और उन्नति की प्रार्थना की।

अष्टाविंशे भवित्री त्वं द्वापरे मत्स्ययोनिजा॥
अस्यैव राज्ञो दुहिता ह्यद्रिकायाममावसोः ।
पराशरस्य दायादमृषिं त्वं जनयिष्यसि॥
स वेदमेकं ब्रह्मर्षि श्चतुर्द्धा विभजिष्यति ।
महाभिषस्य पुत्रौ द्वौ शन्तनोः कीर्त्तिवर्द्धनौ॥
विचित्रवीर्यं धर्मज्ञं त्वमेवोत्पादयिष्यसि।
चित्राङ्गदं च राजानं सर्वसत्त्वबलान्वितम्॥
एतानुत्पादयित्वाथ पुनर्लोकानवाप्स्यसि ।
व्यभिचारात्पितॄणां त्वं प्राप्स्यसे जन्म कुत्सितम्॥
(ब्रह्माण्ड पुराण, मध्यभाग, अध्याय – १०, श्लोक – ६७-७०)

पितरों ने कहा – अमावसु की पुत्री जो अद्रिका नाम वाली है (वह मछली बनेगी) अट्ठाईसवें द्वापर में तुम मछली के गर्भ से जन्म लोगी। ऋषि पराशर के पुत्र एक दूसरे ऋषि को तुम जन्म दोगी। वह ब्रह्मर्षि एक ही वेद (यजुर्वेद) को चार भागों में बाटेंगे। फिर तुम महाभिष, जिनका लौकिक नाम शान्तनु है, उनके दो कीर्तिवर्द्धक पुत्र, धर्म को जानने वाले विचित्रवीर्य एवं बलवान् राजा चित्रांगद को जन्म दोगी। इतनी सन्तानों को उत्पन्न करने के बाद तुम अपने दिव्य लोक को पुनः प्राप्त कर सकती है, पितरों के प्रति व्यभिचार की बुद्धि रखने के कारण तुम्हें इस घृणित जन्म को भोगना पड़ेगा।