प्रश्नकर्ता आदर्श पाण्डेय – क्या देवदासी प्रथा पुराणों में है, और क्या यह शास्त्र सम्मत है ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – बहुधा विधर्मी प्रथा शब्द को जोड़कर नकारात्मक अर्थ लगाते हैं। जैसे सती एक पातिव्रत्य की चारित्रिक स्थिति है, अग्निप्रवेश स्वैच्छिक है, किन्तु उसे प्रथा शब्द लगाकर नकारात्मक अर्थ में प्रस्तुत किया गया।
देवमिन्द्रियं दास्नोति देवस्य परिचारिका देवदासी। यह शब्दकोषों का मत है। जो देवता की सेवा हेतु अपना शरीर समर्पित कर दे, वह देवदासी है। ध्यान रहे, “देवता की सेवा” का अर्थ “ब्राह्मणों के द्वारा व्यभिचार” कदापि नहीं होता। कितने प्रकार की दासी हैं ? बताया – दासी चतुर्विधा प्रोक्ता। चार प्रकार की दासियाँ हैं। कौन कौन ? ब्रह्माण्ड पुराण के उत्तरभाग ने कहा – देवदासी ब्रह्मदासी स्वतन्त्रा शूद्रदासिका।
देवताओं की सेवा करने वाली देवदासी (जैसे कि श्रीमती मीराबाई, कर्माबाई आदि), ब्राह्मणों या ब्रह्मवेत्ताओं की सेवा करने वाली ब्रह्मदासी (जैसे देवी शबरी आदि), स्वतन्त्ररूप से अपनी आजीविका के अनुसार सेवा करने वाली (आजकल भी घरों में काम वाली बाई होती है) और चौथी शूद्रदासी (सामान्यतः सेवा करने वाले शूद्रों की स्त्रियां, अथवा उनकी भी सेविकाएं)।
देवदासी पर चर्चा होती है तो शूद्रदासी पर क्यों नहीं ? मात्र ब्राह्मणों की निन्दा हेतु क्यों आरोप लगाया जाता है ? किस श्रुति, स्मृति, पुराण, तन्त्र आदि से यह सिद्ध है ? देवदासी तो देवताओं की सेवा करती है, ब्राह्मणों की नहीं, उनके लिए ब्रह्मदासी है। ब्रह्मदासी भी यौन शोषण हेतु थोड़े ही है। ऐसे तो स्वतन्त्रादासी, जो आपकी कामवाली बाई है, उसमें क्या यौन शोषण की प्रथा निहित है ?
देवदासियों का कार्य बड़े बड़े मन्दिरों में यज्ञादि उत्सव के उपलक्ष्य पर मङ्गलगीतों का गायन करना, वादन करना, विधि के अनुसार पूजा सामग्रियों की व्यवस्था करना आदि था। भार्गवतन्त्र के बारहवें अध्याय में कहते हैं –
ततो मङ्गलवादिन्यो देवदास्यः स्वलङ्कृताः।
आवहन्युर्निशां सर्वां यथासूक्ष्मं यथाविधम्॥
परमपुरुषसंहिता के दूसरे अध्याय में यज्ञोत्सवादि की व्यवस्था में जो अर्चक परिचारक का निर्णय है, उस प्रसङ्ग में कहते हैं –
भेरीमृदङ्गपटहवीणावेण्वादिवाद्यकान्॥
घण्टाकाहलतूर्यादिमर्दलध्वनिकारकान्।
नृत्यगीतादिनिपुणान् बन्दीमागधलेखकान्॥
वेत्रहस्तान् भटाञ्चैव गजाश्वोष्ठ्रादिपालकान्।
गोपालकान् देवदासी रथसारथिकान् तथा॥
स्थानशुद्धिकराञ्चैव पात्रशुद्धिकरान् तथा।
छत्रचामरवेत्रादिधारकान् वाहकान् ततः॥
उपर्युक्त श्लोकों में देख सकते हैं कि नाना प्रकार के गीत, संगीत, वाद्य आदि में निपुण जन, स्तुतिकर्ता, लेखक, देवदासी, भीड़ आदि को सन्तुलित करने हेतु लाठी आदि धारण करने वाले पहलवान आदि, स्थान और सामग्री की शुद्धि और स्वच्छता हेतु कर्मचारियों की बात आती है। इस प्रकार समझना चाहिए कि किस शब्द या पद का क्या तात्पर्य एवं अर्थ है।