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हिंदुत्व की मृत्यु

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हिंदुत्व की मृत्यु….

प्रस्तुत विषय विरोधाभास से युक्त हैं क्योंकि विराट सर्वव्यापी सनातन एवं उसके अंदर सन्निहित महान हिंदुत्व, नाशादि भौतिक विकारों से रहित हैं। आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दो प्रकार के हिन्दू हो गए हैं :- जीवित एवं मृत। यहाँ जीवन या मृत्यु का अर्थ शरीर प्राप्ति या वियोग से नहीं है। तात्पर्य धार्मिक निष्ठा एवं तत्परता से है।

प्रत्येक हिन्दू के लिए आवश्यक है कि वह अपने वर्ण, जाति, आश्रम, कुल एवं पद के अनुरूप कर्तव्य का पालन करते हुए अधिकारों का उपभोग करे। इसके लिए आवश्यक है कि वह धैर्य, श्रद्धा, विनम्रता एवं परिश्रम से साथ मान्य शास्त्रीय परम्परा सम्मत मठ, आश्रम, गुरुमण्डल एवं आचार्यों की शरण ग्रहण करके मान्य प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर उनके ज्ञान से लाभान्वित हो। कर्तव्य एवं अधिकार के निर्वहन हेतु ज्ञान की आवश्यकता है और यही मार्ग ज्ञान प्राप्ति का सर्वाधिक प्रशस्त निमित्त है। यदि वह ऐसा करता है तो उसकी जीवित संज्ञा है।

परंतु मृत हिन्दू अपने भारतीय भाषा में रखे नाम के आगे पूर्वजों द्वारा प्राप्त पदनाम का प्रयोग मात्र करके स्वयं को हिन्दू मान लेता है। बाल्यकाल से ही अर्थप्रधान कुशिक्षा, स्वार्थपूर्ण नौकरी, कुभोजन, कुविचार, एवं कुसंगति से युक्त होकर यदि वह सप्ताह या महीने में एक बार किसी निश्चित दिन मांसाहार का परित्याग करके समीपवर्ती देवालय में पांच मिनट की उपस्थिति करा लेता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि देवगण एवं धर्मसभा कल्पांत पर्यंत उसके ऋणी हो गए हैं।

जीवित हिन्दू और मृत हिन्दू, दोनों ही मनुष्य देह से युक्त हैं फलतः मानवीय स्वभाववश दोनों के ही मन में अपार जिज्ञासाएं एवं प्रश्न होते हैं। दोनों के मन में अवतार, कर्म, आयाम, सृष्टि, समाज, सुख, दुःख, संयम, सिद्धि, संहार, विज्ञान, योग, भोग आदि से सम्बंधित अनंत समस्याएं होती हैं। जीवित हिन्दू को साधना एवं पाखण्ड के मध्य का भेद ज्ञात होता है, संत एवं व्यापारी के मध्य का भेद ज्ञात होता है, सिद्ध एवं जादूगर के मध्य का भेद ज्ञात होता है, क्योंकि वह सनातनी परंपरा से जुड़ा हुआ है। अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, शांकर, वैष्णव, शाक्त, प्राजापत्य, गाणपत्य, कौल, अघोर, सौर, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक आदि अनेकानेक सर्वमान्य सर्वहितकारी उपासना एवं दर्शन पद्धतियों में से किसी न किसी से तो जुड़ा हुआ ही है। चाहे जिस शाखा पर बैठा हो, कम से कम मूलरूपी विशुद्ध ब्रह्म से भिन्न तो नहीं। अतः अपनी परम्परा के गुरुमण्डल की कृपा से उसकी जिज्ञासा का शीघ्र शमन होता है एवं वह निर्मल ज्ञान से युक्त होकर कल्याण को प्राप्त करता है।

परंतु परम्परा विहीन, संस्कारविहीन, पशुवत् केवल उदरभरण एवं इन्द्रियसन्तुष्टि में लिप्त रहने वाला मृत हिन्दू जब किसी परिस्थिति, प्रेरणा या जिज्ञासावश सनातन सम्बन्धी गूढ़ रहस्यों को नहीं समझ पाता तो युगकालविक्षेप से भ्रमित होकर चकाचौंध एवं आडम्बर से भरे कथित प्रायोजित (अ)धर्मगुरुओं, पाखण्डियों, एवं शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करने वाले स्वघोषित ऋषियों एवं भाष्यकारों की शरण ग्रहण करके उनके द्वारा मायामय अर्थवाद से ग्रस्त होकर सत्य से कोशों दूर चला जाता है।

हम जिस युग की ओर बढ़ रहे हैं, उसका अंत पूर्व में भी किया जा चुका है। हम जिन आविष्कारों से चमत्कृत हैं, उनका उपभोग पूर्व में भी किया जा चुका हैं। हम जिन प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं से घिरे हैं, उनका समाधान पूर्व में भी किया जा चुका है। हमारे महान पूर्वजों के मन में ये सब प्रश्न आ चुके हैं जिसका समाधान घोर अनुसन्धान, मनन एवं साधना के माध्यम से करके उसे ग्रंथों में सूत्रात्मक रूप से संग्रहित कर दिया गया है। परंतु ज्यादा विचारवान दिखने की होड़ में मनुष्य खुद का ही सर्वनाश करता है।