पद्मपुराण में भी ऐसे ही देवर्षि नारदजी ने एक ब्राह्मण और राक्षसियों का संवाद वर्णित किया है। राक्षसियों ने ब्राह्मण से प्रश्न किया कि उन्होंने कौन कौन से तीर्थों में भ्रमण किया है, तब ब्राह्मण ने उत्तर दिया –
तत्र स्नानादिकं कर्म निशाचर्यः कृतं मया।
ततः काशीमहं प्राप्तो राजधानीमुमापतेः॥
नत्वा विश्वेश्वरं देवं बिन्दुमाधवमेव च।
स्नातं मणिकर्णिकायां ज्ञानवाप्याञ्च भक्तितः॥
त्रिरात्रिमुषितस्तत्र प्रयागं पुनरागमम्।
(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय – २०८, श्लोक – ३६-३७)
अर्थात् – “हे राक्षसियों ! मेरे द्वारा (नानातीर्थों में) स्नान किया गया, फिर मैं उमापति महादेव की राजधानी काशी में आया। वहां भगवान् विश्वेश्वर और बिन्दुमाधव को प्रणाम करके मैंने भक्तिपूर्वक मणिकर्णिका एवं ज्ञानवापी में स्नान किया। फिर वहाँ तीन रात्रि व्यतीत करके मैं पुनः प्रयागराज आ गया।”
इससे सिद्ध होता है कि ज्ञानवापी का अस्तित्व आदिकाल से है, पूर्वकाल में भी लोग ज्ञानवापी का महत्व जानते थे और नियमित शास्त्रोक्त विधि से उसका सेवन भी करते थे। काशी की गौरीयात्रा का वर्णन भी निम्न प्रमाण से देखें –
अतः परं प्रवक्ष्यामि गौरीयात्रामनुत्तमाम्।
शुक्लपक्षे तृतीयायां या यात्रा विश्ववृद्धिदा।॥
गोप्रेक्षतीर्थे सुस्नाय मुखनिर्मालिकां व्रजेत्।
ज्येष्ठावाप्यां नरः स्नात्वा ज्येष्ठागौरीं समर्चयेत्॥
सौभाग्यगौरी सम्पूज्या ज्ञानवाप्यां कृतोदकैः।
ततः शृङ्गारगौरीञ्च तत्रैव च कृतोदकैः॥
स्नात्वा विशालगङ्गायां विशालाक्षीं ततो व्रजेत्।
सुस्नातो ललितातीर्थे ललितामर्चयेत्ततः॥
स्नात्वा भवानीतीर्थेऽथ भवानीं परिपूजयेत्।
मङ्गला च ततोऽभ्यर्च्या बिन्दुतीर्थकृतोदकैः॥
ततो गच्छेन्महालक्ष्मीं स्थिरलक्ष्मीसमृद्धये।
इमां यात्रां नरः कृत्वा क्षेत्रेऽस्मिन्मुक्तिजन्मनि॥
(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय – १००, श्लोक – ६७-७२)
अर्थात् – “अब मैं विश्व की वृद्धि करने वाली अत्यन्त उत्तम गौरीयात्रा को कहने जा रहा हूँ। शुक्लपक्ष की तृतीया को मुखनिर्मालिका में जाकर ज्येष्ठावापी में स्नान करके व्यक्ति ज्येष्ठागौरी का पूजन करे। फिर ज्ञानवापी में जाकर उसके जल से सौभाग्यगौरी की पूजा करनी चाहिए। वहीं पर उसी जल से शृंगारगौरी की पूजा भी करे। विशालगङ्गा में स्नान करके विशालाक्षी के पास जाये एवं ललितातीर्थ में विधिवत् स्नान करके ललितादेवी का पूजन करे। अब भवानीतीर्थ में स्नान करके भवानी की पूजा करे। उसके बाद बिन्दुतीर्थ के जल से मङ्गला की पूजा करनी चाहिए। फिर स्थिर लक्ष्मी की वृद्धि के लिए महालक्ष्मी के पास जाये। इस यात्रा को करके व्यक्ति इस क्षेत्र में इसी जन्म में मुक्ति को प्राप्त कर जाता है।
स्कन्दपुराण में वर्णित है –
आकाशात्तारकाल्लिङ्गं ज्योतीरूपमिहागतम्।
ज्ञानवाप्याः पुरोभागे तल्लिङ्गं तारकेश्वरम्॥
तारकं ज्ञानमाप्येत तल्लिङ्गस्य समर्चनात्।
ज्ञानवाप्यां नरः स्नात्वा तारकेशं विलोक्य च॥
कृतसन्ध्यादिनियमः परितर्प्य पितामहान्।
धृतमौनव्रतो धीमान्यावल्लिङ्गविलोकनम्॥
मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति शाश्वतम्।
प्रान्ते च तारकं ज्ञानं यस्माज्ज्ञानाद्विमुच्यते॥
(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय – ६९, श्लोक – ५३-५६)
श्लोकों का भाव यह है कि आकाशमण्डल से जो तारकलक्षणक ज्योतिःस्वरूप लिङ्ग आया, वह ज्ञानवापी के सामने वाले भाग में तारकेश्वर नाम से स्थित है। इस लिङ्ग की पूजा करने से व्यक्ति को तारने वाले ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानवापी में स्नान, तारकेश्वर भगवान् का दर्शन, सन्ध्या आदि नियम, पूर्वजों का तर्पण करके मौनव्रत को धारण करने वाला बुद्धिमान् जब तक लिङ्ग का दर्शन करता है, उतने में सभी पापों से मुक्त होकर शाश्वत पुण्य को प्राप्त करता है। अन्त में उद्धार करने वाले ज्ञान को प्राप्त करके उसी ज्ञान से मुक्त हो जाता है।