💐धीरज पाण्डेय💐: यदि प्रकृति उपादान कारण है तो प्रकृति का उपादान कारण क्या है? क्योंकि कर्ता का भी कारण अवश्य होता है। क्षेत्र क्षेत्रज्ञ की बात में यदि आप प्रकृति को क्षेत्र मानें तो ब्रह्म को क्षेत्रज्ञ नही कह सकते क्योंकि जैसा आप कह रहे हैं प्रकृति कर्ता है तो भोक्ता भी प्रकृति ही होनी चाहिए, क्योंकि जो कर्ता है वही भोक्ता भी होगा। यदि द्वा सुपर्णा से भी ब्रह्म अभोक्ता ही सिद्ध हुआ। पहले आपने ब्रह्म को अकर्ता सिद्ध किया द्वा सुपर्णा से अभोक्ता, आप संसार को गुणों की विकृति कह रहे हैं तो गुण प्रकृति के कार्य हैं अतः गुणों का दृष्टा प्रकृति हुई न की ब्रह्म इससे आपने ब्रह्म को अदृष्टा भी सिद्ध कर दिया। … ब्रह्म की तो कुछ बात ही नही हुई। और यदि एकमात्र स्वर्ण ही है तो उसमें कटक कुंडल का भेद कैसे आ गया। जिस प्रकार कटक कुंडल इत्यादि परमार्थ दृष्टि से केवल स्वर्ण ही हैं केवल व्यवहारिक दृष्टि से भेद प्रतीत होता है वास्तव में स्वर्ण में कही पर भी कटक कुंडल इत्यादि भाव नही है केवल स्वर्ण ही है परंतु कटक कुंडल में देखा जाये तो सभी जगह केवल स्वर्ण ही है स्वर्ण निकाल देने पर कटक कुंडल कहाँ रहा। उसी प्रकार यह प्रकृति भी केवल ब्रह्म ही है प्रकृति में ब्रह्म सम्पूर्ण रूप से व्याप्त है परंतु ब्रह्म में प्रकृति कही भी नही है। केवल सच्चित्कारम् बिजृम्भते ही है। इसमें फिर प्रश्न उठता है कि फिर यह दृश्य क्या है? यह केवल भ्रम मात्र ही है । ?
🌞 श्रीभागवतानंद गुरु 🌞: ऐसा नहीं है। प्रकृति का कोई उपादान कारण नहीं। *प्रकृतिं पुरुषं चैव विध्यनादि उभावपि* प्रकृति को अनादि कहा। अतः उसका कोई उपादान कारण नहीं। मैं ब्रह्म को क्षेत्रज्ञ इसीलिए कह सकता हूँ क्योंकि श्रीकृष्ण जी ने कहा कि *क्षेत्रज्ञम् चापि मां विद्धि*। प्रकृति संसार की कर्त्री है परन्तु भोक्त्री नहीं। क्योंकि *भोक्ता भोग्यं प्रेरितारम्* वचन से ब्रह्मजन्य जीव को भोक्ता और प्रकृतिजन्य संसार को भोग्य कहा गया है। द्वा सुपर्णा से ब्रह्म अभोक्ता बिलकुल सिद्ध हुआ क्योंकि भोक्तापन उसका कार्य है ही नहीं। इस हेतु उस चेतन ने जीवत्व धारण की व्यवस्था बना रखी है। ब्रह्मत्व भाव में चेतन भोक्ता न बनकर मात्र साक्षी और प्रेरक होता है। ब्रह्म अकर्ता भी है और कर्ता भी। स्वयं को प्रकृति, ब्रह्म और जीव, इन तीन स्थितियों में स्थापित करने से वह कर्ता है। और ब्रह्मत्व की स्थिति में कार्यहीन होने से वह अकर्ता भी है क्योंकि फिर कार्य और करण में उसकी प्रकृति वाली स्थिति निमित्त बनती है। *कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते* गुणों की द्रष्टा प्रकृति नहीं है। प्रकृति गुणों की स्रष्टा है। द्रष्टा तो ब्रह्म ही है। और भोग जीव करता है। अब रही बात कि क्या दृश्य भ्रम है ? निःसन्देह है। निःसन्देह दृश्य भ्रम ही तो है। क्योंकि दर्शन तो संसार की स्थिति का ही होता है। जो नाशवान् है। नश्वरता ही भ्रम है। संसार नाशवान् नहीं।
जैसे बाल्य, कौमार्य, यौवनादि में मात्र स्थिति का नाश होता है, देह का नहीं, वैसे ही भिन्न भिन्न स्थिति में भी मात्र स्थिति का ही नाश होता है, संसार का नहीं। जिस प्रकार से रस्सी में सर्प की प्रतीति होने से वह रस्सी सर्प नहीं बनती। बाद में ज्ञान होने से सर्प का दर्शन भी नहीं होता। उसी प्रकार से इस संसार में नानार्थ दर्शनों के उद्भवान्तादि विकारों में भी मात्र दर्शन स्थिति का नाश होता है, संसार का नहीं। अतः हाँ, दृश्य भ्रम ही है।
💐धीरज पाण्डेय💐 :- प्रकृति का यदि कुछ उपादान कारण नही है तो प्रकृति कर्ता कैसे हुई? क्योंकि बिना कारण के कर्ता उत्पन्न नही हो सकता। भगवान कृष्ण द्वारा क्षेत्रज्ञ चापि माम् विद्धि में यदि गुणवान है तो इससे प्रकृति ही क्षेत्रज्ञ हुई क्योकि गुण प्रकृति के कार्य हैं। यदि निर्गुण है तो निर्गुण में अहम् भाव नही है और यदि निर्गुण गुणों का आश्रय लेता है तो उसकी अपूर्णता सिद्ध होती है परंतु शास्त्र वचन से ब्रह्म पूर्ण है। और भगवान कृष्ण का ही वचन है- *न बन्धोस्ति न मोक्षोस्ति ब्रह्मैवास्ति निरामयम्* *नैकमस्ति न च द्वित्तम् सच्चित्कारम् विजृम्भते* प्रश्न यह है कि क्या ब्रह्म व प्रकृति में भिन्नता है? और जीव क्या है? यदि ब्रह्म का ही स्वरूप है तो ब्रह्म में विकार कैसे हुआ? या फिर प्रकृति व ब्रह्म के अलावा कोई तीसरा विलक्षण तत्व है। और यदि ये तीनो एक ही है तो उसे एक परम् सत्ता को विकारवान कैसे माना जाये?
🌞 श्रीभागवतानंद गुरु 🌞: जिस प्रकार से अन्न उगाने का कार्य भले ही भूमि करे, लेकिन उसे कृषक नहीं कहा जाता, वैसे ही भले ही गुण प्रकृति के कार्य हैं, पर उसे क्षेत्रज्ञ नहीं कहा जाता। वास्तव में प्रकृति का उपादान कारण ब्रह्म है। क्योंकि वही प्रेरक होता है। परन्तु श्रुतियों ने उसे प्रकृति के स्वतंत्र उपादान की संज्ञा इसीलिए नहीं दी क्योंकि वास्तव में प्रकृति का स्वतन्त्र भिन्न अस्तित्व ही नहीं। ब्रह्म ही जब त्रिगुणमयी स्थिति में आ जाते हैं जो उनकी *प्रकृति* संज्ञा होती है। तो यह कहा जा सकता है कि निर्गुण ब्रह्मत्व ही उसके त्रिगुणयुक्त प्राकृत भाव का उपादान कारण है। हालाकि वास्तव में ऐसा है नहीं। आप जल को यदि हिम का उपादान कारण मान लें तो यह बात एक दृष्टिकोण से सही भी है और नहीं भी। जैसे यदि मैं किसी को जल फेंक कर मारूं तो उसे चोट न आएगी पर उसी मात्रा के जल से निर्मित बर्फ से मारूं तो चोट आएगी। वास्तव में जल के मूल तत्त्व में कोई परिवर्तन न आया, बस वह इस समय शीत रूपी गुण से युक्त हो गया है। इसीलिये वह अपना जलत्व खोकर हिमत्व की संज्ञा को धारण करने वाला हो गया है। वास्तव में ब्रह्मत्व और प्रकृति में यही भेद है। निर्गुण विशुद्ध चेतन ही ब्रह्म है। उसी का त्रिगुणमय प्रारूप ही माया है और इन दोनों के सम्मिश्रण से मायाबद्ध चेतन ही जीव है।
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru
(इस लेख में संसार के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण को व्यक्त करने का प्रयास किया गया है| इसका उद्देश्य श्री आद्यशंकराचार्य जी के श्रुतिसम्मत सिद्धांतों से विरोध करना नहीं है, वे तो सर्वथा सत्य हैं एवं लेखक उन्हीं का पालन भी करता है | लेख का उद्देश्य कोई विवाद उत्पन्न करना नहीं है, अपितु एक सूक्ष्म चिन्तन को प्रस्तुत करना है|)