देवी गङ्गा का माहात्म्य विश्व से छिपा नहीं है। अपने आधिभौतिक प्रारूप में धरा को सुधामय जल से आप्लावित करने वाली, आधिदैविक रूप में एक अंश से वैकुंठ में श्रीविष्णु के साथ, एवं दूसरे अंश से कैलास पर शिवजी के साथ विहार करने करने वाली, एवं आध्यात्मिक रूप में देवताओं के लिए भी दुर्लभ मोक्ष को देने वाली मूलप्रकृति स्वरूपा गङ्गादेवी के सानिध्य का लाभ लेने के लिए बड़े बड़े ऋषि महर्षि एवं देव, दैत्य, नाग, किन्नर, यक्ष, असुर आदि सभी लालायित रहते हैं। महाभागवत के अनुसार निम्न पांचों को मूलप्रकृति की पराविद्या का पंचधा रूप बताया गया है।
गङ्गा दुर्गा च सावित्री लक्ष्मीश्चैव सरस्वती।
सा सीता मूलप्रकृतिः, इस औपनिषदिक वेदवाक्य से सीताजी भी मूलप्रकृति हैं और तन्त्रान्तर में राधारानी भी मूलप्रकृति ही बताई गई हैं।
एक मित्र ने कुछ वर्ष पूर्व पूछा था कि जब हरिश्चंद्र के बाद कई पीढ़ियों के अंतराल पर आने वाले महामना भगीरथ जी के माध्यम से पृथ्वी पर गंगावतरण हुआ था तो हरिश्चंद्र जी स्वयं काशी पुरी में गंगा किनारे चाण्डाल वीरबाहु की नौकरी कैसे करते थे ? यह तो समझा जा सकता है कि जिस घाट पर वे नौकरी करते थे, उसका नाम “हरिश्चंद्र घाट” बाद में पड़ा, हालांकि घाट पहले से ही था। किंतु गंगाजी वहां कैसे आयीं ?
जब महाराज हरिश्चंद्र सत्य की परीक्षा दे रहे थे और स्वयं को सपरिवार बेचने के लिए काशी पहुंचे तो उन्होंने निम्न कृत्य किया –
ततो भागीरथीं प्राप्य स्नात्वा देवादितर्पणम्।
देवार्चनं च निर्वर्त्य कृतवान् दिग्विलोकनम्॥
प्रविष्य वसुधापालो दिव्यां वाराणसीं पुरीम्।
नैषा मनुष्यभुक्तेति शूलपाणे: परिग्रह:॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कंध – ०७, अध्याय – २०, श्लोक – १५-१६)
गङ्गा जी में स्नान करके देवताओं का तर्पण किया। देवताओं का पूजन करके निर्वृत्त होकर वे चारों ओर देखने लगे। उस दिव्य वाराणसी पुरी में प्रवेश करके पृथ्वीपति (हरिश्चंद्र) ने यह सोचा कि यह मनुष्यों के उपभोग की नगरी नहीं है, क्योंकि इस पुरी पर शिव जी का अधिकार है। (वाराणसी में जाकर लौकिक कृत्य नहीं करने चाहिए, वह मोक्षदा पुरी है, इसीलिए वहां धर्मकर्तव्य ही उचित है)
इसका उत्तर यह है कि गंगा जी केवल एक ही बात पृथ्वी पर आई हैं, ऐसा नहीं है। भगीरथ जी जब गङ्गादेवी से पृथ्वी पर आने की प्रार्थना कर रहे थे तो ब्रह्माजी के दिव्य कमण्डलु में तात्विक रूप से निवास करने वाली देवी गंगा ने शिव जी से कहा था –
याहं शैलसुता त्यक्त्वा धरां स्वर्गं गता सुरै:।
साहं कथं भविष्यामि पातालतलगामिनी॥
(बृहद्धर्म पुराण, मध्यखण्ड, अध्याय – ४९, श्लोक – ६२)
जो शैलपुत्री मैं, पृथ्वी को छोड़कर देवताओं के साथ वापस स्वर्ग में जा चुकी थी, वही अब कैसे पाताल को जाऊंगी ? (पृथ्वी के बाद उन्हें पाताल भी जाना था, अतएव स्वर्ग, पृथ्वी एवं पाताल में गति होने से उन्हें त्रिपथगा भी कहते हैं)
गंगावतरण के कई कारण हैं, जिनमें दो प्रधान कारणों का मैं उल्लेख कर रहा हूँ। सबसे पहले जब गंगावतरण हुआ था तो उस तीर्थ का नाम ही गंगावतरण पड़ गया। हिमालयस्थ, इस तीर्थ का नाम कालिका पुराण में अनेकों बार सांकेतिक रूप से आया है। जब पहले पृथ्वी पर गङ्गादेवी विद्यमान थीं तो ब्रह्मदेव ने उन्हें हिमालय से मांगकर स्वर्ग ले जाने की इच्छा की। अपने पिता हिमालय की सम्मति से गङ्गादेवी ने पृथ्वी को छोड़कर स्वर्ग जाने का निर्णय किया, इसके बाद गङ्गा पृथ्वी पर विलुप्त हो गयी थीं। गङ्गादेवी ने पिता हिमालय से तो अनुमति ली थी, किन्तु माता मेना से बिना मिले, बिना कुछ कहे चली गयी थीं, अतएव
ततः स्वतनयां रोषाच्छशाप गिरिगेहिनी।
असम्भाष्य गतां स्वर्गं गङ्गां प्राणसमामपि॥
मातरं मामसम्भाष्य गता यस्मात्त्रिविष्टपम्।
ततो द्रवमयी भूत्वा पुनरेहि धरातलम्॥
(महाभागवत उपपुराण, अध्याय – १४, श्लोक – ०७-०८)
हिमालय की पत्नी मेना ने अपने प्राणों से भी अधिक प्रिया पुत्री को क्रोध में आकर यह श्राप दिया कि मुझसे बात किये बिना ही तुम स्वर्ग चली गयी, अतः जलरूप से पुनः इस पृथ्वी पर आओगी।
जब हिमालय और मेना, मूलप्रकृति को पुत्री रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तो देवी ने कहा कि मैं अपने दो अंश, गङ्गा एवं गौरी के रूप में तुम्हारी पुत्री बनूंगी। उस समय (स्कन्दपुराण आदि के अनुसार) वैशाख शुक्ल सप्तमी को गङ्गादेवी ने सगुणाकृति धारण किया। इसी दिन उन्होंने शिव जी की जटा में भी प्रवेश किया और पृथ्वी को भी धन्य किया। इसके बाद ब्रह्मदेव की याचना पर वे पृथ्वी को छोड़कर स्वर्गलोक चली गयी थीं। भगीरथ महाराज की प्रार्थना पर वे गङ्गा दशहरा (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) को शिवजटा के माध्यम से पृथ्वी पर पुनः आईं।
हरिश्चंद्र महाराज के समय गङ्गादेवी इस पृथ्वी पर पहले से ही थीं। उसके बाद विलुप्त हो गयीं, ऐसा समझना चाहिए। हरिश्चंद्र एवं भगीरथ के कालमध्य कई लाख वर्षों का अंतर था। स्वयं सगर के जिन पुत्रों के उद्धार के निमित्त गङ्गादेवी को लाने की बात थी, उन महाराज सगर एवं भगीरथ के मध्य भी पांच लाख से अधिक वर्षों का अंतर हो गया था। अतः इतने दिनों में गङ्गादेवी का जलरूपी विग्रह विलुप्त होना असामान्य नहीं है।
गङ्गादेवी के भौतिक जलरूपी विग्रह के सम्बन्ध में तीन अलग अलग घटनाओं का कारण है। सबसे पहले तो वामनावतार की घटना है, जब लोकव्यापी वामन भगवान के श्रीचरणों से ब्रह्माण्डकटाह किञ्चित् विदीर्ण हुआ एवं बाहर के एकार्णव का दिव्य जल उनके चरणों को धोने लगा। उस अलौकिक जल को ब्रह्मा जी ने देवदुर्लभ जानकर अपने कमण्डलु में रख लिया, इसीलिए देवी गङ्गा को विष्णुपादाब्जसम्भूता भी कहते हैं। यह घटना श्रीमद्भागवत आदि में वर्णित है।
दूसरी घटना तब की है जब देवताओं का वैकुण्ठ में एक बहुत बड़ा अधिवेशन हुआ था। वहां देवी सरस्वती ने अत्यंत मधुर गायन किया जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने नाना प्रकार के उपहारों के द्वारा उनका सम्मान किया। इसके बाद भगवान् विष्णु के अनुरोध पर भगवान् शिव ने गायन प्रारम्भ किया। महादेव के गायन से देवताओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि वे मूर्छित से हो गए। स्वयं लीलारसेन्द्र भगवान् नारायण का विग्रह भी द्रवित होने लगा और वे जलरूपी बन गए जिससे वैकुण्ठ भर गया। जलरूपी नारायण का स्पर्श होने पर देवताओं को होश आया और ब्रह्मदेव ने उस वैष्णव जल को अलौकिक एवं परम पवित्र जानकर कमण्डलु में भर लिया जो बाद में गङ्गादेवी के नाम से विख्यात हुआ। यह कथा महाभागवत आदि में पढ़ी जा सकती है।
तीसरी कथा का प्रसङ्ग गोलोक का है। श्रीकृष्ण एवं राधारानी दिव्य सभावृत्त में विराजमान थे। सभी सखियों के साथ गङ्गादेवी भी वहीं थीं। भगवान् श्रीकृष्ण की सुन्दरता पर आकृष्ट होकर देवी गङ्गा ने उन्हें देखकर किञ्चित् लज्जित होते हुए मुस्कुरा दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी भावना का सम्मान मुस्कुरा कर किया। इस घटना को देखकर राधारानी भगवान् के प्रति अत्यंत प्रेम और असुरक्षा की भावना से चिन्तित हो गयी और उन्होंने भगवान् को प्रणयकोप में कठोर वाणी कही। राधा जी के क्रोध से गङ्गादेवी खिन्न हो गयीं एवं ….
गङ्गा रहस्यं विज्ञाय योगेन सिद्धयोगिनी।
तिरोभूय सभामध्ये स्वजलं प्रविवेश सा॥
राधा योगेन विज्ञाय सर्वत्रावस्थितां च ताम्।
पानं कर्तुं समारेभे गण्डूषासिद्धयोगिनी॥
गङ्गा रहस्यं विज्ञाय योगेन सिद्धयोगिनी।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजे विवेश शरणं ययौ॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कंध – ०९, अध्याय – १३, श्लोक – ८०-८२)
क्रोध के रहस्य को जानकर सिद्धयोग वाली गङ्गा सभामध्य में ही योगबल से जल में प्रवेश कर गयीं। राधा ने भी योगबल से सर्वजलव्यापिनी गङ्गा को देखा और अंजुली में उस जल को भर कर गङ्गादेवी को तिरोहित करने की भावना से उसका पान करने लगीं। इस रहस्य को जानकर सिद्धयोगिनी गङ्गादेवी योगबल से श्रीकृष्ण के चरणों में प्रवेश कर गयीं। बाद में गङ्गा को ब्रह्मा जी ने वहां से प्राप्त करके अपने कमण्डलु में सुरक्षित कर लिया था। यह कथा श्रीमद्देवीभागवत आदि में देखी जा सकती है।
गङ्गादेवी के पुनः जलरूप से धरती में आने का माता मेना के श्राप कारण का उल्लेख मैं कर चुका हूँ। अब दूसरा कारण बताता हूँ।
वैकुण्ठ में भगवान् विष्णु की पत्नी, लक्ष्मीदेवी, गङ्गादेवी एवं देवी सरस्वती थीं। (देवी सरस्वती एक अंश से ब्रह्मा और दूसरे अंश से विष्णुपत्नी हैं। ऐसे ही गङ्गादेवी भी एक अंश से विष्णुपत्नी एवं दूसरे अंश से शिवपत्नी हैं)
उस समय भी भगवान् विष्णु को देखकर गङ्गादेवी ने प्रेमवश मुस्कुरा दिया, जिसकी प्रतिक्रिया में भगवान् भी मुस्कुराने लगे। इस घटना को देवी लक्ष्मी एवं सरस्वती ने भी देखा। देवी लक्ष्मी को तो यह बात सामान्य ही लगी किन्तु सरस्वती को अपने उपेक्षित होने का भाव लगने लगा। भगवान् के जाने के बाद उन्होंने गङ्गादेवी के प्रति किञ्चित् कठोर वचन कहे और देवी लक्ष्मी को गङ्गा का समर्थन करने के कारण निम्न श्राप दिया –
शशाप वाणी तां पद्मां महाबलवती सती।
वृक्षरूपा सरिद्रूपा भविष्यसि न संशयः॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कंध – ०९, अध्याय – ०६, श्लोक – ३२)
महाबलशालिनी पतिव्रता वाग्देवी सरस्वती ने देवी लक्ष्मी को श्राप दिया कि तुम वृक्ष एवं नदी बन जाओगी, इसमें संशय नहीं है। अब लक्ष्मी की तो कोई गलती थी ही नहीं, फिर भी मेरा पक्ष लेने के कारण इन्हें श्राप मिल गया, ऐसा देखकर गङ्गादेवी क्रुद्ध हो गईं। उन्होंने देवी सरस्वती को श्राप दिया।
जानन्तु सर्वे ह्युभयोः प्रभावं विक्रमं सति।
इत्येवमुक्त्वा सा देवी वाण्यै शापं ददाविति॥
सरित्स्वरूपा भवतु सा या त्वां च शशाप ह।
अधोमर्त्यं सा प्रयातु सन्ति यत्रैव पापिनः॥
कलौ तेषां च पापानि ग्रहीष्यति न संशयः।
इत्येवं वचनं श्रुत्वा तां शशाप सरस्वती॥
त्वमेव यास्यसि महीं पापिपापं लभिष्यसि।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र भगवाना जगाम ह॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कंध – ०९, अध्याय – ०६, श्लोक – ३९-४२)
गङ्गादेवी ने कहा – हम दोनों के प्रभाव को आज संसार देख ही ले। यह सरस्वती भी मेरे श्राप से नदी के रूप में परिणत हो जाये। यह नीचे पापियों से भरे मर्त्यलोक में जाकर कलियुग में पापियों के पाप को ग्रहण करेगी, इसमें संशय नहीं है। गङ्गादेवी के वचनों को सुनकर सरस्वती ने उन्हें भी श्राप दिया और कहा कि तुम भी धरती पर जाकर पापियों के पाप को ग्रहण करोगी। ये घटना घटित हो ही रही थी कि वहां श्रीविष्णु आ गए। उन्होंने सारी बात समझकर निम्न निर्णय दिया –
१) देवी लक्ष्मी भूलोक में पद्मावती नदी एवं तुलसी वृक्ष बन जाएं।
२) देवी सरस्वती एवं गङ्गा दोनों भी नदियां बनेंगीं। श्राप से मुक्त होने और सरस्वती अपने पूर्ण अंश से ब्रह्मलोक चली जाएं और ब्रह्मदेव की शक्ति बनकर रहें। (सांकेतिक रूप से गङ्गा को भी कैलास जाने का निर्णय हुआ)
३) गङ्गादेवी मेरे (विष्णु) के अंश से उद्भूत समुद्र की पत्नी बनें और उसी समुद्र के अंश से (उत्पन्न महाभिष जब) शान्तनु का अवतार होगा तो उनकी भी पत्नी बनेंगी।
इस पूरे प्रकरण में देवी लक्ष्मी ने असीम सहनशीलता तथा सत्वोचित धैर्य का व्यवहार किया अतः वे भगवान् विष्णु की विशेष प्रिया हुईं, साथ ही उनका वैकुण्ठ में नित्य वास हुआ।
एक बार गङ्गादेवी और राजा महाभिष ब्रह्मलोक के देवसम्मेलन में गए हुए थे। वहां मन्द सुगंधित वायु ने उनके वस्त्रों को किञ्चित् अनावृत्त कर दिया। देवगणों ने, गङ्गादेवी अपने वस्त्र व्यवस्थित कर लें, इस कामना ने अपनी आंखें एवं मस्तक सभ्यता के कारण झुका लिए किन्तु महाराज महाभिष गङ्गादेवी को देखते ही रहे। गङ्गादेवी भी उनके भाव को जानकर उन्हें देखती रह गयीं। इस बात से ब्रह्मदेव कुपित हो गए उन्होंने कहा –
ब्रह्मा चुकोप तौ तूर्णं शशाप च रुषान्वितः।
मर्त्यलोकेषु भूपाल जन्म प्राप्य पुनर्दिवम्॥
पुण्येन महताविष्टस्त्वमवाप्स्यसि सर्वथा।
गङ्गां तथोक्तवान्ब्रह्मा वीक्ष्य प्रेमवतीं नृपे॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कंध – ०२, अध्याय – ०३, श्लोक – २१-२२)
हे राजन् ! तुम मर्त्यलोक में जाकर पुनः जन्म लो। वहां अत्यंत अधिक पुण्य को अर्जित करके पुनः दिव्यलोक में आ पाओगे। गङ्गादेवी भी वहां जाकर रहें, क्योंकि उनका मन तुमपर आसक्त है।
इस घटना के बाद सभा विसर्जित हो गयी और महाभिष ने पुरुवंश में शान्तनु के रूप में जन्म लिया और गङ्गादेवी से उनका विवाह हुआ जिसके आठवें पुत्र के रूप में द्यौ नामक वसु ने वशिष्ठश्राप से देवव्रत भीष्म का अवतार लिया।
उपर्युक्त घटनाओं से देवताओं ने शिक्षा दी है कि काम, क्रोध, और लोभ आदि से देवताओं का भी पतन हो जाता है। वाग्देवी सरस्वती ने लक्ष्मी के प्रति क्रोध, गङ्गादेवी ने महाभिष के प्रति काम और द्यौ वसु ने लोभवश वसिष्ठ जी की गाय चुराने का कृत्य करके श्राप के दण्ड को भोगा। जब काम, क्रोध और लोभ के कारण सर्वसमर्थ देवताओं का भी पतन हो सकता है तो मनुष्यों को तो विशेष सतर्क रहना चाहिए। इन दिव्य लीलाओं से यह भी शिक्षा मिलती है कि यदि देवताओं का भी कृत्य धर्मविरुद्ध हो जाए तो उन्हें भी इसका फल अवश्य भोगना पड़ता है, धर्म के शासन से देवता भी परे नहीं हैं, अतः मनुष्यों को तो विशेषकर धर्म के पालन में दृढ़ रहना चाहिए।
गङ्गादेवी के दर्शन, स्नान, आचमन एवं नामस्मरण से भी विशाल पापराशियों का नाश होता है, ऐसा अनेकों प्रकार से कई प्रसङ्गों के उदाहरण के द्वारा वेद, तन्त्र एवं पुराणों में सिद्ध किया गया है, साथ ही उनके दिव्य माहात्म्य से सनातनी समाज अपरिचित नहीं है, अतएव मैं उस विषय में अधिक लेखन नहीं कर रहा हूँ।
क्या गङ्गादेवी का मोक्षदायिनी होना, उनमें स्नान आदि करने से पापमुक्त होना, कर्मफल के उस सिद्धांत का खण्डन नहीं है जो कहता है कि अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्, शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है ?
इसका उत्तर ऐसे समझें – सभी शुभ और अशुभ कर्म तीनों गुणों से ही प्रभावित होते हैं और विकार एवं गुण प्रकृतिजन्य है, ऐसा श्रीमद्भगवद्गीता का वचन है। गङ्गादेवी मूलप्रकृति होने से सभी गुणों के आधार पर कृत कर्मों को अपने तेज से सन्तुलित कर देती हैं। साथ ही पापनाशकों में सर्वोत्तम भगवान् विष्णु एवं भगवान् शिव के प्रत्यक्ष संसर्ग में होने से गङ्गादेवी का माहात्म्य और भी देदीप्यमान एवं अद्भुत हो जाता है। यदि व्यक्ति गङ्गादेवी का स्नान, आचमन या स्मरणमात्र से भी सेवन करे तो उसका कल्याण असन्दिग्ध है, ऐसा ऋषिप्रणीत ग्रंथों के अनुसार मेरा मत है।
हां, इसमें एक बात यह है कि गङ्गादेवी का आश्रय ग्रहण करने वाला व्यक्ति श्रद्धा से युक्त हो। यदि श्रद्धा न भी हो तो चलेगा, किन्तु अश्रद्धालु न हो। जैसे गङ्गादेवी के माहात्म्य को न जानने वाले पशु, पक्षी, अज्ञानियों में श्रद्धा तो नहीं होती, पर अश्रद्धा भी नहीं होती, एक प्रकार से आप मासूमियत कह लीजिए। ऐसे में भी गङ्गादेवी कल्याण करती ही हैं। यदि माहात्म्य को जानते हुए, श्रद्धायुक्त होकर गङ्गा की शरण ग्रहण करें तब तो कल्याण में कोई सन्देह ही नहीं है। किन्तु अश्रद्धा से युक्त होकर, अथवा गङ्गादेवी तो मेरा कल्याण कर ही देंगी, ऐसा समझ कर उनके नाम और प्रभाव का दुरुपयोग करते हुए धूर्ततापूर्वक पाप करते रहने से गङ्गादेवी कल्याण नहीं करती है, ऊपर से क्रुद्ध ही होती हैं क्योंकि तीर्थ के नाम पर, अथवा उनकी अवहेलना करके वहां किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है जिससे भगवान् भी नहीं बचाते हैं।
गङ्गादेवी (साथ ही अन्य तीर्थ, नदी, देवालय आदि) के प्रति हमसे कोई अपराध न हो, हम इन्हें विकृत एवं प्रदूषित न करें, हम इनके प्रति श्रद्धा से रहित न हो जाएं इसका विशेष ध्यान रखना अत्यावश्यक है। जैसे अग्नि के संसर्ग से सर्दी, सूर्य के संसर्ग से अन्धकार और शास्त्रसिद्ध सद्गुरु के संसर्ग से अज्ञान का नाश हो जाता है, वैसे ही गङ्गादेवी के संसर्ग से अपार पापराशियों का भी नाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं करना चाहिए।
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru