दास्यते भृतिरस्मै दासति ददात्यङ्गं स्वामिने उपचाराय वा दास:।
(वाचस्पत्यम्)
वाचस्पत्यम् का वचन है कि जिसे “भृति” दी जाए, और जो (भृति लेने के बदले) अपने अंग (शरीर) को स्वामी के उपचार (सेवा) के लिए समर्पित करे, उसे दास कहते हैं। अमरकोश में भृति का अर्थ वेतन, एवं मेदिनीकोश में भृति का अर्थ भरण बताया गया है। अर्थात् जो व्यक्ति भरण पोषण के बदले अथवा वेतन लेकर स्वामी की सेवा करे, वह दास है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कैसे विदेशों के गुलाम या स्लेव, और हमारे यहां के दास-दासी आदि में व्यापक अंतर है, एवं क्यों सेल्वरी या गुलामी को हम दासप्रथा नहीं कह सकते।
जहां विदेशों में गुलामों को पीट पीट कर मारने की बात सामान्य है, वहीं वाचस्पत्यम् आगे स्मृतिवाक्य से कहता है,
यश्चैषां स्वामिनं कश्चिन्मोचयेत् प्राणसंशयात्।
दासत्वात् स विमुच्येत पुत्रभागं लभेत चेति॥
जो (दास) अपने स्वामी को प्राणसंकट से बचाता है, वह दासत्व से मुक्त होकर पुत्र के समान हो जाता है। (यहां तक कि उसका अपने स्वामी की सम्पत्ति में भी अधिकार हो जाता था)
किन्तु विदेशों में पुत्र बनना तो दूर, यदि मालिक के सम्बन्धी भी कोई अपराध करें और उसका आरोप गुलाम पर आ जाये तक बिना किसी जांच के गुलाम को मृत्युदंड तक दे दिया जाता था –
A female slave was sent on an errand, and was gone longer than her master wished. She was ordered to be flogged, and was tied up and nearly beaten to death. While the overseer was whipping her, in the presence of her master, she said that she had been prevented returning sooner by sickness on the way. Her enraged master ordered her to be whipped again for daring to speak, and the lash was again applied, until she expired under the operation. Nor was her life alone sacrificed. An unborn infant died with her, which had been the cause of her delay on her master’s errand.
(Proceedings of the New-England Anti-Slavery Convention, held in Boston on the 27th, 28th and 29th of May, 1834. Boston.)
New-England Anti-Slavery Convention, जो मई,१८३४ की २७-२९ तारीख तक बॉस्टन में चला था, उसमें गुलामों की स्थिति पर अनेक घटनाओं के उदाहरण देते हुए कहा गया था –
एक स्त्री गुलाम को किसी कार्य से भेजा गया था किंतु उसने आने में कुछ देर कर दी। मालिक को यह देरी पसन्द नहीं थी, इसीलिए उसे (बाकी गुलामों को आदेश देकर) कोड़े मारे गए, और बांध कर लगभग अधमरा होने तक पीटा गया। जब गुलामों का प्रभारी उसे पीट रहा था, तब उस महिला ने कहा कि रास्ते में उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया था इसीलिए उसे देरी हो गयी। (चूंकि महिला गुलाम गर्भवती थी, तो शायद गर्भावस्थाजन्य के शारीरिक थकान, भार, तनाव आदि से वह शीघ्रता में न आ सकी) उसकी बात सुनने से मालिक का गुस्सा और बढ़ गया, उसने मालिक से “जुबान लड़ाने” के कारण उसे और अधिक कोड़े लगाए और अंततः वह उस पिटाई के कारण मर गयी। केवल उसने ही अपने प्राण नहीं दिए, अपितु उसके पेट में पल रहा अजन्मा बच्चा भी मर गया, क्योंकि उस बच्चे के कारण ही महिला गुलाम को आने में देर हो गयी थी।
Another case occurred, where a black boy was whipped for stealing a piece of leather, and because he persisted in denying it, he was whipped till he died. After he was dead, his master’s son acknowledged that he took the piece of leather.
(बॉस्टन के १८३४ वाले उसी अधिवेशन में यह बात भी बताई गई कि) एक काले गुलाम लड़के को कोड़े मारे जा रहे थे। उसपर चमड़े के एक टुकड़े को चुराने का आरोप लगाया गया था, और चूंकि उस बच्चे ने इस आरोप का खंडन किया और कहा कि उसने चोरी नहीं की है, तो मालिक ने उसे तब तक कोड़े मारे, जब तक वह बच्चा मर नहीं गया। उस बच्चे के मर जाने के बाद, मालिक के बेटे ने यह बताई कि वास्तव में उसने (मालिक के बेटे ने) ही चमड़ा लिया था।
A slave, who was a husband and father, was made to strip his wife and daughter, and whip them.
(New-England Anti-Slavery Society (1835). Second annual report of the board of managers of the New-England Anti-Slavery Society)
संस्था के १८३५ में हुए दूसरे वार्षिक सम्मेलन में पुनः ऐसी ही चर्चाओं में एक उदाहरण दिया गया – “एक गुलाम, जो एक पिता और पति भी था, उसे विवश किया गया कि वह अपनी पत्नी और बेटी को निर्वस्त्र करके उनपर कोड़े बरसाये।
During his term of bondage, the indentured servant received no monetary payment. His hours and conditions of work were set absolutely by the will of his master who punished the servant at his own discretion. Flight from the master’s service was punishable by beating, or by doubling or tripling the term of indenture. The bondservants were frequently beaten, branded, chained to their work, and tortured.
अपने गुलामी के सत्र में गुलामों को कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उनके काम करने का समय और परिस्थितियों का निर्णय मालिक की इच्छा पर होता था, जो उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार ही दण्डित करता था। यदि गुलाम मालिक की गुलामी छोड़कर भाग जाता था, तो उसे पकड़ कर पीटा जाता था, अथवा उसके गुलामी के सत्र को बढ़ाकर दो या तीन गुणा कर दिया जाता था। गुलामों को काम के दौरान अक्सर बांध कर रखा जाता था, पीटा जाता था, गर्म लोहे से दागा और प्रताड़ित किया जाता था।
Washington Telegraph ने २९ अगस्त, १८३५ के अपने अंक में प्रथम पृष्ठ पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें एक गुलामों के मालिक के विचार दिए गए थे, जिसने कहा था –
We …. deny that slavery is sinful or inexpedient. We deny that it is wrong in the abstract. We assert that it is the natural condition of man; that there ever has been, and there ever will be slavery.
(Washington Telegraph. August 29, 1835)
“हम इस बात से इंकार करते हैं कि गुलामी/स्लेवरी करवाने में कोई पाप या अनैतिकता की बात है। गुलामी करवाना भावनात्मक रूप से गलत है, हम इस बात से भी इंकार करते हैं। हम इस बात के लिए आश्वस्त करते हैं कि गुलामी, लोगों की एक प्राकृतिक स्थिति है, ये हमेशा से थी और हमेशा रहेगी।”
आप समझ सकते हैं कि म्लेच्छों की मानसिकता किस स्तर की थी, कि उन्हें गुलामों के प्रति इतने अत्याचार करने के बाद भी “यह पाप है”, इसकी तक समझ नहीं थी। इसी मानसिकता के कारण उन्होंने भारत में कई आक्रमण किये, कभी अरबी, कभी तुर्क, कभी मुगल, कभी पुर्तगाली, कभी अंग्रेज तो कभी यूनानियों के रूप में … वे गुलामी को प्राकृतिक मानते हैं और पूरे संसार को अपना गुलाम बनाने को अपना अधिकार समझते हैं। एक उदाहरण और देखें –
Joe’s mother was ordered to dress him in his best Sunday clothes and send him to the house, where he was sold, like the hogs, at so much per pound. When her son started for Petersburgh, … she pleaded piteously that her boy not be taken from her; but master quieted her by telling that he was going to town with the wagon, and would be back in the morning. Morning came, but little Joe did not return to his mother. Morning after morning passed, and the mother went down to the grave without ever seeing her child again. One day she was whipped for grieving for her lost boy…. Burwell never liked to see his slaves wear a sorrowful face, and those who offended in this way were always punished. Alas! the sunny face of the slave is not always an indication of sunshine in the heart.
(Reference – Keckley, Behind the Scenesor, Thirty years a slave, and Four Years in the White House, 1868, p. 12)
‘जो’ की माँ को यह आदेश मिला कि वह उसे (जो को) अच्छे से अच्छे कपड़ों में तैयार करके भेज दे, जहाँ उसे (जो को) बेचा गया। सूवरों की भांति, जो को बेचा गया, अधिक से अधिक दाम देने वाले को। जब (जो की माँ के) बेटे (जो) को पीटर्सबर्ग के लिए रवाना किया गया, तो उसने कातर होकर प्रार्थना की, कि उसके बेटे को उससे न छीना जाय, लेकिन मालिक ने उसे यह कहकर चुप करा दिया कि ‘जो’ केवल गाड़ी के साथ शहर तक जा रहा है, अगली सुबह तक लौट आएगा। सुबह हुई, किन्तु छोटा ‘जो’ नहीं लौटा। ऐसी कई सुबहें आयीं किन्तु ‘जो’ नहीं आया, और उसकी माँ अपनी मृत्यु तक उसे न देख सकी। एक दिन अपने खोए बच्चे का शोक मनाने के कारण ‘जो’ की माँ को कोड़े भी मारे गए थे, क्योंकि बॉर्वेल (मालिक) को अपने गुलामों के उदास चेहरे देखना पसन्द नहीं था। जो गुलाम उदास रहते थे, उन्हें मालिक का “अपमान” करने के कारण कोड़े मारे जाते थे। गुलाम के चेहरे की खुशी का मतलब यह नहीं, कि उसका दिल भी खुश है।
१७१२ ई० में South Carolina Code बनाया गया था, जो उत्तरी अमेरिका में गुलामी के कायदों के आधार पर लिखा गया था और उसे बाद में जॉर्जिया और फ्लोरिडा आदि में भी लागू किया गया था। उसके नियमों में से एक का उदाहरण देखें –
The 1712 South Carolina slave code included the following provisions –
No slave could work for pay; plant corn, peas or rice; keep hogs, cattle, or horses; own or operate a boat; buy or sell, or wear clothes finer than “Negro cloth”.
कोई भी गुलाम वेतन नहीं ले सकता था। अपने लिए खेती नहीं कर सकता था, अपने लिए सूअर, गाय, घोड़े आदि नहीं पाल सकता था, अपनी नाव नहीं रख या चला सकता था, अपनी इच्छा से किसी वस्तु की खरीद बिक्री नहीं कर सकता था अथवा उनके लिए निर्धारित कपड़ों से बेहतर कपड़े नहीं पहन सकता था।
हालांकि यह कानून बाद में संशोधित किया गया था और नए नियमों में कुछ बिंदु इस प्रकार के थे –
The South Carolina slave code was revised in 1739, with the following amendments –
No slave could be taught to write, work on Sunday, or work more than 15 hours per day in summer and 14 hours in winter. A fine of $100 and six months in prison were imposed for teaching a slave to read and write; the death penalty was imposed for circulating incendiary literature.
किसी भी गुलाम को पढ़ाना लिखाना (शिक्षा देना) प्रतिबंधित था। उससे गर्मियों में पन्द्रह एवं सर्दियों में चौदह घण्टों से अधिक काम नहीं लिया जा सकता था। (संशोधन के बाद यह स्थिति थी, उससे पहले की कल्पना आप कर सकते हैं) गुलामों को शिक्षा देने वाले व्यक्ति को सौ डॉलर का जुर्माना एवं छः मास की कैद जा दण्ड मिलता था। उन्हें भड़काऊ शिक्षा देने वाले को मृत्युदण्ड दिया जाता था।
Children, especially young girls, were often subjected to sexual abuse by their masters, their masters’ children, and relatives.
(Reference – Painter, Nell Irvin, “Soul Murder and Slavery: Toward A Fully Loaded Cost Accounting,” U.S. History as Women’s History, 1995, p 127)
बच्चे, विशेषकर छोटी लड़कियों का यौन शोषण उनके मालिक, मालिक के बेटों या उनके रिश्तेदारों के द्वारा अक्सर किया जाता था।
गुलामों को अक्सर गुलामी के तस्कर खरीदते और बेचते थे। यह सब विदेशों में आज भी व्यापकता से होता है। किन्तु चूंकि भारत में गुलामी या स्लेवरी नहीं थी, यहां केवल दास थे, तो सनातनी शास्त्र दासों के विषय में क्या निर्देश करते हैं ?
बलाद्दासीकृतश्चौरैर्विक्रीतश्चापि मुच्यते।
ऐसा स्मृतिकार याज्ञवल्क्य का वचन है। जिसे बलपूर्वक दास बना लिया गया हो, तस्करों के द्वारा बेच दिया गया हो, उसे दासत्व से मुक्त कर देना चाहिए। अर्थात् यदि आप अपने घर के लिये या व्यापार के लिए किसी को नौकरी पर रखते हैं तो उसे बलपूर्वक या मानव-तस्करों के द्वारा खरीद बेच कर दास नहीं बनाया हुआ होना चाहिए।
बालधात्रीमदासीञ्च दासीमिव भुनक्ति यः।
परिचारकपत्नीं वा प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम्॥
जो छोटे उम्र की दासी, (अथवा छोटे बच्चे की देखभाल करने वाली दासी), जो दासत्व से मुक्त है, ऐसी स्त्री, अथवा अपने दास की पत्नी का (यौन) उपभोग करता है, उसे पूर्व साहस का दण्ड देना चाहिए। (कई बार घर की बुरी स्थिति के कारण छोटी बच्चियां भी नौकरानी का काम करने लगती हैं) ऐसा स्मृतिकार कात्यायन का वचन है।
तेन लोभादिवशादसौ न मुक्तस्तदा राज्ञा मोचयितव्य इत्याह नारदः।
चौरापहृतविक्रीता ये च दासीकृता बलात् ।
राज्ञा मोचयितव्यास्ते दास्यन्तेषु हि नेष्यते॥
यदि लोग लोभवश बलपूर्वक बनाये हुए अथवा तस्करी से लाये गए दासों को मुक्त न करें तो राजा अपने हस्तक्षेप से उन्हें मुक्त कराए, क्योंकि ऐसे लोग दासत्व के योग्य नहीं होते हैं, ऐसा स्मृतिकार नारद का वचन है।
वाग्व्यवहारादर्श, याज्ञवल्क्य स्मृति एवं अग्निपुराण आदि का शासकों के प्रति आदेश है कि –
अवरुद्धासु दासीषु भुजिष्यासु तथैव च।
गम्यास्वपि पुमान्दाप्यः पञ्चाशत् पणिकं दमम्॥
जिन स्त्रियों को बंधक (जेल आदि में) बनाया गया हो, जो स्त्रियां दासी हों, जो स्त्रियां (प्रमुखतः वेश्याएं) किसी और के उपभोग लिए पहले से नियुक्त हों, (अथवा जिनका विवाह आदि किसी और के साथ निश्चित हो), उनका उपभोग करने वाले व्यक्ति को पचास पण का दण्ड राजा दे। (यहां पर किसी जाति, वर्ण ये चमड़ी के रंग की बात नहीं है, सबों के लिए यह नियम है। किंतु विदेशों की स्लेवरी में ऐसा नहीं था)
Free or white women could charge their perpetrators with rape, but slave women had no legal recourse; their bodies legally belonged to their owners.
(Reference – Block, Sharon. “Lines of Color”, 137.)
स्वतन्त्र या गोरी स्त्रियां अपने अत्याचारियों पर बलात्कार का कानूनी आरोप लगा सकती थीं, किन्तु काली और गुलाम स्त्रियों के पास ऐसा कोई कानूनी अधिकार नहीं था, क्योंकि उनके शरीर पर उनके मालिकों के संवैधानिक अधिकार था।