हमारे यहां धर्म का अर्थ रिलीजन या मनोनिर्धारित धारणा नहीं होता। धर्म कर्तव्य का नाम है जो सबों के लिए निर्देशित है। जो करना चाहिए, वह धर्म है, जो नहीं करना चाहिए, वह अधर्म है। कर्तव्याकर्तव्य का विवेचन ही धर्माधर्म है। बृहद्धर्म पुराण के अनुसार शूद्र यदि मदिरा पी ले तो वह अधर्म नहीं है, ब्राह्मण पी ले तो अधर्म है। अधिकृत ब्राह्मण यदि वेदपाठ न करे तो अधर्म है, शूद्र यदि करे तो अधर्म है।
हमारी संस्कृति में रजस्वला स्त्री के लिए मासिक धर्म शब्द आया है, उस समय के भी कुछ निर्दिष्ट कर्तव्य हैं और यह सब कुछ सनातन का ही अंग है। धर्म एवं रिलीजन अथवा मजहब में उतना ही अंतर है जितना हीरे एवं कांच के क्रिस्टल में। हमारे यहां व्यापारधर्म है, राजधर्म है, गृहस्थधर्म है, आपद्धर्म है, मानवधर्म है, नारीधर्म है, और तो और, सामान्य स्वभाव को दर्शाने के लिए गुणधर्म शब्द का भी प्रयोग है। धर्म अत्यंत गहन एवं विस्तृत पर्यवेक्षक का तत्व है जिसे मात्र किसी भी कल्पना अथवा धारणा से नहीं तौला जा सकता है।
भारत की सबसे बड़ी भूल यह रही है कि इसने अपने भीतर आने वाले सभी मान्यता और समुदायों की धारणा को धर्म की संज्ञा दी दी और इस प्रकार अधर्म की परिभाषा एवं पहचान को ही नष्ट कर दिया। यदि प्रत्येक धारणा धर्म है तो जो कहते हैं कि काफिरों की स्त्रियों और बच्चियों से बलात्कार करो, वह भी तो धर्म ही हुआ न। हमें हत्यारों एवं लुटेरों की वासना और लोलुपता को धर्म के रूप में स्थान देने की भूल बहुत अधिक क्षतिग्रस्त कर रही है।
हमने शस्त्रधारण को अधर्म कह दिया किन्तु हमें मारने के लिए आये हुए शत्रु के शस्त्रधारण पर मौन रह गए। हमारे यहां केवल उद्देश्य ही धर्म या अधर्म है, कर्म नहीं। कर्म तो मात्र घटनाक्रम का बीज है, उद्देश्य ही उसका मूल आधार है। शल्यक्रिया में चिकित्सक को न पाप लगता है, और न ही वह दोषी माना जाता है, जबकि एक लुटेरा जब चीर फाड़ करता है तो वह दोषी और पापी है। सब कुछ उद्देश्य पर ही आश्रित है इसीलिए हमारे यहां जटायु तक का सम्मान होता है किंतु दुर्योधन का नहीं।
शास्त्रबल समुचित रूप से सबों के लिए उनके उनके कार्य, अधिकार, उद्देश्य और कर्त्तव्य का निर्धारण करता है जिसे हम मर्यादा कहते हैं। हमारे यहां पुत्र अपनी माता से रमण नहीं कर सकता, पिता अपनी पुत्री से रमण नहीं कर सकता। अब कोई पुत्र या पिता यह कहने लगे कि यह हमारे अधिकार का हनन है, यह हमारा शोषण है, यह हमारी स्वतंत्रता के विरुद्ध है तो यह निःसन्देह ही पाशविक मूर्खता होगी। शास्त्र शोषण अथवा अधिकार का हनन नहीं करते, वे कल्याणकारी व्यवस्था के अंतर्गत एक सर्वहितकारिणी व्यवस्था का निर्माण करते हैं।
विश्व में केवल सनातन ही ऐसा है, जहां मानवधर्म की बात आई है। समस्त मानवों के लिए क्या कर्तव्य हैं, क्या अधिकार हैं, इसकी बात आई है। विश्व परिवार की धारणा को स्थापित करने की बात केवल सनातन में ही दृष्टिगोचर होती है। हमारे यहां युद्ध के भी नियम निश्चित थे। हमारे यहां युद्ध का उद्देश्य केवल शांति को सुनिश्चित करना था, हम निहत्थों पर, गर्भवती पर, बालक, वृद्ध अथवा रोगी पर प्रहार नहीं करते थे। शत्रु की स्त्रियों और बालिकाओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं करते थे, इसीलिए हम बलिष्ठ भी थे एवं सम्माननीय भी।
धर्म उस नैसर्गिक भावना का नाम है जो आप स्वयं के साथ होना चाहते हैं। आप यदि प्रसन्न रहने की इच्छा रखते हैं तो दूसरों को प्रसन्न रखना आपका धर्म हैं। इसीलिए महाभारत ने पुण्य एवं पाप, धर्म एवं अधर्म के लिए दो ही सूत्र बताये हैं। पुण्य हेतु परोपकार करो, पाप हेतु दूसरों को कष्ट दो। पद्मपुराण में कहा गया कि अपने हित के विरुद्ध लगने वाला आचरण दूसरों से भी मत करो। उदारता और सहृदयता का, त्याग एवं सहिष्णुता का यह स्तर कहीं और देखने को मिलता है भला ?
कल्याण में सबका अधिकार है, ज्ञान में सबका अधिकार है, भोजन में भी सबका अधिकार है। किंतु किसके लिए क्या है, और किसके लिए कब है, यह मर्यादा निश्चित की गई है। विवाह करना सबका (गृहस्थाश्रमी) अधिकार है, किन्तु माता से, बहन से नहीं कर सकते। भोजन सबका अधिकार है किंतु मांसाहार, पर्युषित आदि नहीं कर सकते, अनुचित रीति से किसी के अधिकार को क्षीण करके अन्न ग्रहण नहीं कर सकते। ऐसे ही योग में भी सबका अधिकार है, किन्तु उसके लिए तटस्थ दृष्टि होनी आवश्यक है, गुणातीत दृष्टि का होना आवश्यक है। इड़ा और पिंगला वाम एवं दक्षिण प्रधान हैं। किंतु सुषुम्ना निरपेक्ष है।
सुषुम्नाज्ञो नरः स्त्री वा युवा बालो जरन्नपि।
योगाभ्यासेऽधिकारी स्यादभ्यासात्सिद्धिभागपि।
सर्वेऽप्याश्रमिणो वर्णा योगाभ्यासेऽधिकारिणः॥
(दत्तात्रेय पुराण, द्वितीय अष्टक, द्वितीय अध्याय)
इसकी वासुदेवी टीका में भाष्यकार लिखते हैं,
क्रममुक्त्यादिकं सर्वं जगज्जन्मादिकं तथा।
योगे वयोजात्याद्यपेक्षा नास्तीत्याह द्वाभ्याम्॥
सुषुम्ना की वृत्ति को जानने वाला, अर्थात् गुणातीत व्यक्ति योगाभ्यास का अधिकारी है, चाहे वह किसी भी आश्रम, आयु या वर्ण का हो …. गुणातीत कौन है ?
मानापमानयोस्तुल्यः तुल्यमित्रारिपक्षयो:।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, चौदहवां अध्याय)
जो मान और अपमान में समान अर्थात् निर्विकार रहता है, तथा मित्र और शत्रुपक्षके लिये तुल्यभाव रखता है। यद्यपि कोई-कोई पुरुष अपने विचार से, अपने दृष्टिकोण से तो उदासीन होते हैं, परंतु दूसरों की समझ से वे मित्र या शत्रुपक्षवाले जैसे ही होते हैं इसलिये कहते हैं कि जो मित्र और शत्रुपक्षके लिये तुल्य है, अर्थात् स्वयं तो किसी को भी मित्र या शत्रु न माने, साथ ही ऐसा व्यवहार करे कि समाज के अन्य जन भी उसको अपना मित्र या शत्रु कुछ भी न मानें।
जो सारे आरम्भों का त्याग करनेवाला है। आरम्भ का अर्थ ? हम खाएंगे तो भूख मिटेगी, यह दृष्ट फल है, सर्वदा घटित होगा। हम हेलमेट लगाएंगे तो दुर्घटना में अधिक हानि नहीं होगी, यह अदृष्ट फल है, परिस्थितियों के आधार पर घटित होगा। दृष्ट और अदृष्ट फलके लिये जाने वाले कर्मों का नाम आरम्भ है। ऐसे समस्त आरम्भों का (वस्तुतः तत्सम्बन्धी दृष्टादृष्ट फलों की कामना का ) त्याग करने का जिसका स्वभाव है, वह सर्वारम्भपरित्यागी है। अर्थात्, जो केवल शरीरधारण के लिये आवश्यक कर्मों के सिवा सारे कर्मोंका त्याग कर देनेवाला है, वह पुरुष गुणातीत कहलाता है।
तो, ऐसा ही गुणातीत व्यक्ति सुषुम्ना की वृत्ति को जानने वाला, निरपेक्ष-अनारम्भ स्वभाव वाला है, ऐसा समझना चाहिए। ऐसा व्यक्ति पुरुष हो, अथवा स्त्री, युवा हो, बालक हो अथवा वृद्ध, योग में उसका अधिकार है, तथा योग के अभ्यास से उसे परमसिद्धि (जीवन्मुक्ति) की प्राप्ति हो जाती है। चारों आश्रम एवं चारों वर्ण के लोग योगमार्ग के अधिकारी हैं, यदि वे सुषुम्ना की वृत्ति को जानने वाले हैं।
इसीलिए हमारे यहां पितामह भीष्म जैसे ब्रह्मचारी भी योगी कहाये तो सुदामा जी जैसे गृहस्थ भी। तृणबिन्दु जैसे वानप्रस्थी भी योगी कहाये तो शंकराचार्य जी जैसे संन्यासी भी। इतना ही नहीं, श्रुतदेव जैसे ब्राह्मण भी योगी कहाये तो राजा कार्तवीय जैसे क्षत्रिय भी। तुलाधार जैसे वैश्य भी योगी कहाये तो धर्मव्याध जैसे शूद्र भी। शबरी, मीरा, कर्मावती, द्रौपदी, आदि स्त्रियां भी योग की उच्चस्तरीय अवस्था को प्राप्त कर सकीं।