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क्या बलराम जी शराबी थे ?

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क्या श्री बलराम जी शराबी थे ?

श्रीरामकथा के अभूतपूर्व प्रवंचक मुरारिदास, जिसे उसके अज्ञानान्धकार में फंसे भक्तजन मोरारी बापू भी कहते हैं, ने कुछ काल से निरंतर व्यासपीठ का अनधिकृत प्रयोग करते हुए खुले रूप से धर्मद्रोह की शृंखला प्रारम्भ कर दी है। पहले तो कथामंच से अली मौला, या हुसैन के नारे लगवाना, छाती पीट कर मुहर्रम का मातम मनाना, और फिर करुणानिधान श्रीराम जी के स्थान पर विश्व भर के सर्वाधिक आतंकवादी घटनाओं के जिम्मेदार समुदाय के प्रवर्तक की कल्पित एवं प्रायोजित करुणा का बखान करने लगना यह दिखाता है कि मुरारिदास या तो गम्भीर रूप से विक्षिप्त है अथवा विधर्मियों के द्वारा खड़ा किया गया एक कुशल धूर्त। कुछ समय पहले तो इसके मंच से मुजरा भी करवाये जाने का वीडियो प्रसिद्ध हुआ था।

जिस शास्त्र की रक्षा के लिए श्रीरामावतार होता है, जिस शास्त्र के विरुद्ध कृत्य करने वाले की भर्त्सना श्रीकृष्ण भगवान् करते हैं, यह व्यक्ति उन्हीं देवस्तुत्य शास्त्रों से भी स्वयं को ऊपर मानता हुआ उनमें संशोधन की बात करता है। सनातन धर्म के किस ग्रंथ की किस उक्ति के कारण विश्व में कितने बम फूटे, कितने अपहरण और बलात्कार हुए, यह तो ज्ञात नहीं, किन्तु जिस किताब के अनुयायियों ने किताब पढ़ पढ़कर बम फोड़े, और फोड़ रहे हैं, अपने मत को न मानने वाले लोगों का अपहरण और बलात्कार कर रहे हैं, उस किताब में संशोधन करने की बात एक बार भी इस धूर्त के मुख से नहीं निकलती है।

“शास्त्रों में संशोधन, या हुसैन से गठजोड़ समय की मांग है” ऐसा कहने वाला यह व्यक्ति सनातनी समाज को बताए कि महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, महारानी अहल्याबाई आदि ने अपने विकटतम संघर्ष के समय, धर्मरक्षा में कष्ट क्यों भोगा ? क्योंकि नहीं उसी समय गठजोड़ एवं संशोधन कर दिया ? हमारे किस ग्रंथ में लिखा है कि श्रावण बीतने पर मुसलमानों को मारो, अथवा कार्तिक बीतने पर ईसाईयों पर घात करो ? बल्कि उनकी ही किताबों में लिखा है कि अमुक महीना बीत जाए तो काफिरों को मार दो। फिर संशोधन किसमें होना चाहिए ?

“समय की मांग है” कहने वाला यह पाखण्डी, सनातनी समाज को यह बताए कि समय की मांग कहने का अधिकार इसे किसने दिया ? स्वयं मुसलमानों की चापलूसी करने वाला यह व्यक्ति क्या उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें निर्वस्त्र करके म्लेच्छों ने दो दो दीनार में बेच दिया था ? क्या यह व्यक्ति सनातनी धर्माधिकारियों की उस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें मारकर उनके जनेऊ को तौला जाता था, क्योंकि लाशें गिनने में समस्या होती ? क्या यह व्यक्ति उन लाखों करोड़ों गायों का प्रतिनिधित्व करता है, उन लाखों देवालयों का प्रतिनिधित्व करता है, उन लाखों बालक बालिकाओं का प्रतिनिधित्व करता है जिनके प्राण और अस्तित्व क्रूरकर्मा म्लेच्छों ने यही अली, हुसैन, गाजी, मौला, ख्वाजा और मुहम्मद के नाम पर नष्ट कर डाले हैं ? है कौन यह व्यक्ति जो स्वयं को सर्वोच्च मानकर ऐसा प्रलाप करता है ?

समय क्या है ? काल क्या है ? श्रीकृष्ण ने कहा – मैं ही काल हूँ। कालोऽस्मि … और वही श्रीकृष्ण कहते हैं, शास्त्र के विरुद्ध मत चलो। हम श्रीकृष्ण रूपी समय की मांग को सही कहें या धूर्तों की बात को ? इसके समर्थक लोग कहते हैं कि ये सन्त हैं, साधु हैं, इनकी शैली समझो। कथा के लिए एक रुपया भी नहीं लेते। करोड़ों रुपए दान में देते हैं।

बहुत अच्छे से हम इसका व्यापार समझते हैं। साधु और सन्त का काम क्या है ? समाज को धर्म के प्रति आस्थायुक्त करना, अथवा उसको अपने ही आराध्यों के प्रति संदेह, उपहास एवं घृणा से भर देना ? एक भी रुपया नहीं लेने का दावा करने की बात की जांच आप स्वयं कर लें। इनके प्रबन्धकों को फोन करें और कहें कि हमें कथा करानी है। इसके राजसी ठाठ और व्यवस्था के खर्च को सुनकर ही आपको वास्तविकता ज्ञात हो जाएगी। ये जो करोड़ों रुपये दान देता है, यदि हम उससे ही इसे साधु कह दें तो फिर वेटिकन वालों को तो सबसे बड़ा साधु कहना पड़ेगा क्योंकि भारत में अपने अनुयायी बढ़ाने के लिए वे लोग हज़ारों करोड़ खर्च कर रहे हैं। हिंदुओं की दी गयी दक्षिणा के करोड़ों रुपयों से हज़ यात्रा करवाने वाले यह धूर्त हिन्दू धर्म का वह कोढ़ है, जिसे खुजलाने में तो आनंद आता है किंतु वह और भी सड़न उत्पन्न करता ही रहता है।

श्रीरामकथा, श्रीकृष्णकथा में जो ज्ञान है, जो वीरता है, अवतार का उद्देश्य एवं शिक्षा जो है, उसे न बताकर इधर उधर का प्रलाप, म्लेच्छों का गुणगान, गौभक्षकों के साथ उठना बैठना, उनके ही टेंट, माइक, गायन, भोजन का प्रयोग करना, और कथाभाग के नामपर केवल श्रीराम जी की कारुण्यप्रधान नरलीला, श्रीकृष्ण भगवान् की लोकलीला का बिना पूर्वापर प्रसङ्ग, उद्देश्य, कारण आदि बताए हुए भ्रामक प्रस्तुति देना, यह सब इस कालनेमि का प्रमुख कृत्य बन गया है।

इसके एक अनुयायी ने तो हमें यहां तक कह दिया कि जब बापू जी जैसे “पॉपुलर” हो जाओ, तब बात करना। संख्याबल और प्रसिद्धि ही, यही प्रधान है तो फिर ईसा और मुहम्मद के अनुयायियों की संख्या तो पांच अरब की है। मोरारी बापू के तो एक करोड़ भी न होंगे। और तो और, मोरारी बापू तो आतातायी मजहब वालों को करुणानिधान बताता ही है, फिर क्यों इसके चेले हिन्दू वेष बनाकर घूम रहे हैं, सीधे कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते हैं ? धर्म की बात करने के लिए पॉपुलर नहीं बनना पड़ता, शास्त्रनिष्ठ बनना पड़ता है।

श्रीराम दरबार जी के दिव्य रूप को विकृत करके धनुष बाण, एवं यहां तक कि शास्त्रोक्त यज्ञोपवीत तक उतरवा लेने वाला यह म्लेच्छ स्वयं को सन्त कैसे कह सकता है ? शास्त्रों में संशोधन की बात कहकर, भारत को पिछले एक हज़ार वर्षों से रक्तरंजित करने वाले म्लेच्छों से गठजोड़ की बात कहने वाला यह छद्मवेशी म्लेच्छ कैसे साधु हो जाएगा ? यदि हम कहें कि इसकी शैली को समझो, तो फिर ग्राह्य नहीं, क्योंकि जिस शैली से देवताओं के प्रति अनादर उत्पन्न हो, शास्त्रों में अनास्था हो, वह शैली महापुरुषों की नहीं, पाखंडियों की ही होती है।

अभी कुछ दिन पूर्व उसका एक वीडियो प्रसिद्ध हुआ, जिसमें इसने कुछ मुख्य बिन्दु कहे –
१) कृष्ण का जीवन टोटल फेल था।
२) बलराम शराबी था।
३) रुक्मिणी, राधा आदि कृष्ण को ताना मारती थी।

उपर्युक्त विषय पर मान्य धर्माधिकृत सज्जनों ने बहुत प्रकार से आपत्ति करते हुए मुरारिदास के इस नीच वक्तव्य की भर्त्सना की, एवं शास्त्रों के कई प्रमाणों से इसका खण्डन भी किया। इस विषय पर मैं संक्षेप में ही, अति सूक्ष्म भाव से सनातनी समाज को मुरारिदास के द्वारा उत्पन्न किये गए भ्रमजाल से निकालने के लिए कुछ बिंदु प्रस्तुत करूँगा।

भगवान् श्रीकृष्ण का लौकिक जीवन, जिसकी उपासना, आराधना, स्वयं महाभागवत भीष्मपितामह, सर्वज्ञ वेदव्यास जी, धौम्य, दुर्वासा, नारद, च्यवन, गर्ग, सांदीपनि, शांडिल्य, मार्कण्डेय आदि अनेकानेक ऋषिगण, इन्द्र, वरुण, शंकर, अग्नि, ब्रह्मा, कामधेनु आदि अनेकानेक श्रेष्ठ देवगण करते हैं, उनके जीवन का साफल्य बस दो ही व्यक्तियों को समझ में नहीं आया है, एक तो शिशुपाल, और एक मुरारिदास। जैसे उस काल में शिशुपाल के साथ पौंड्रक, रुक्मी आदि चाटुकार थे, वैसे ही मुरारिदास के चाटुकार भी उसके वक्तव्यों की प्रशंसा करते हैं। अतएव श्रीकृष्ण भगवान् का जीवन कितना सफल रहा, इसे अलग से सिद्ध करने की आवश्यकता मैं नहीं समझता।

राधा, रुक्मिणी आदि ने भगवान् को हास विनोद में कुछ कहा हो तो लीलाभाव में सर्वथा ग्राह्य है किंतु उन्होंने निन्दापरक होकर कुछ कहा ही नहीं है, अतः यह वक्तव्य भी मात्र मुरारिदास की धूर्तता ही है। हां, बलराम जी शराबी थे या नहीं, इस विषय पर केंद्रित होते हुए मैं बहुत से गुप्त कथानकों एवं परिस्थितियों के कारण प्रकाशित करते हुए इस लेख में चर्चा करूँगा।

सर्वप्रथम तो हम देखते हैं कि बलराम जी कौन हैं !! संकर्षणोपनिषत् के अनुसार बलराम जी शेषनाग के अवतार हैं। शेषनाग के अन्य अवतारों की चर्चा उसी उपनिषत् में श्रीराम जी के भाई लक्ष्मण, वैयाकरण पतञ्जलि, श्रीरामानुजाचार्य जी आदि के रूप में भी आई है। प्रत्येक देवता का, जब वह एक सगुण अवतार या सगुण रूप धारण करता है, तो उसका एक गुण होता है। गुण का अर्थ यहां अच्छाई बुराई से नहीं है। गुण का अर्थ यहां सात्विक, राजस, एवं तामस गुणों से है। वैसे तो सभी देवताओं में सभी गुण होते हैं किंतु उसमें भी वे स्वभावतः एक गुण का प्रकाशन विशेष रूप से करते हैं। जैसे भगवान् विष्णु को स्वभावतः सात्विक गुण की प्रधानता से वर्णित किया गया है तो भगवान् भैरव आदि को तमोगुण की प्रधानता से। देवी लक्ष्मी को सामान्यतः सात्विक गुण वाली बताया गया है तो देवी निकुम्भिला को तमोगुण वाली कहते हैं। हालांकि सत्वगुण से भी सबों की पूजा हो सकती है और तमोगुण से भी, किन्तु एक गुण की सामान्य प्रधानता वाले की आराधना उसी गुण से युक्त होकर करनी चाहिए। वैसे परमात्मरूप में दोनों निर्गुण गुणातीत हैं किंतु फिर भी लोकव्यवहार में शिव जी को तमोगुण का अधिष्ठाता बताया गया है, और विष्णु भगवान् को सत्वगुण का। फिर भी यह सर्वदा स्थायी नहीं रहता इसीलिए तमोगुण की प्रधानता वाले कर्म को निमित्त बनाकर विष्णु का नृसिंहावतार हुआ और सत्वगुण की प्रधानता वाले कर्म को निमित्त बनाकर शिव का दक्षिणामूर्ति अवतार। कभी कभी कार्यभेद से गुणभेद भी हो जाता है, इसीलिए भगवान् सूर्य ने वैनतेय अरुण को तमोगुणी विष्णु एवं सात्विक शिव का भी संकेत किया है –

गुणत्रयवशात्तेषां वैषम्यं विद्धि सुस्थितम्।
ब्रह्मा हि राजसः प्रोक्तो विष्णुस्तामस उच्यते॥
रुद्रस्स सात्विक: प्रोक्तः मूर्तिर्वर्णैश्च तादृशा:।
(सूर्यगीता, अध्याय – ०३, श्लोक – ३२)

देवताओं में गुणों की विभिन्नता के कारण भिन्नता प्रतीत होती है, जैसे ब्रह्मा राजस हैं, विष्णु तामसी हैं और शिव को सात्विक कहा गया है। उनके स्वरूप का रंग भी वैसा ही है। (ब्रह्मा लालिमा से युक्त हैं, शिव जी गोरे हैं, एवं विष्णु भगवान् सांवले हैं)

जिस देवता का जो स्वाभाविक गुण होता है, वह वैसे ही स्वरूप का कर्म का प्रदर्शन करता है। जैसे कालिका देवी का स्वाभाविक गुण तामसी है, तो उनके स्वरूप में आपको कपाल, रक्तपान, अस्थिमाला आदि दिखेंगे। भगवान् नारद जी का गुण सात्विक है तो वहां आपको वीणा, पुष्पमाला, कमण्डलु, अक्षमाला आदि दिखेंगे। प्रत्येक देवता अथवा उनके अवतार जिस गुण का आश्रय लेकर सगुणाकृति धारण करते हैं, वैसे ही स्वरूप का प्रदर्शन करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि देवताओं के चरित्र की नकल करने से अकल्याण होता है , उनके उपदेशों का ही अनुसरण करना चाहिए, अन्यथा भगवान् शिव की भांति हलाहल विष पीने की नकल करने से कष्ट ही भोगना पड़ेगा। देवताओंके कर्म, स्वरूप, अवतार ये इन्हीं गुणत्रयी में से किसी को अधिष्ठान बनाकर होते हैं, इसीलिए उसका प्रदर्शन करते हैं।

अब हमने जाना कि बलराम जी शेषनाग के अवतार हैं। शेषनाग का प्रधान नाम संकर्षण है। ये कभी कभी रजोगुण की प्रधानता धारण करते हैं तो कभी तमोगुण की प्रधानता से कार्य करते हैं। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि सत्वगुण की प्रधानता वाले विष्णुसम्बन्धी अंश से भगवान् श्रीराम आये, जो स्वभावतः गम्भीर, शांत एवं सहनशीलता के धनी थे। रजःप्रधान तमोगुणी शेषनाग के अंश से अवतरित लक्ष्मण जी में क्रोध, चंचलता, असहिष्णुता और अधीरता अधिक दिखते हैं। रजोगुण की प्रधानता वाले परशुरामावतार में क्रोध की प्रधानता है तो सत्वगुण की प्रधानता वाले नर-नारायण का अवतार में वैराग्य आदि की भावना। इसका कारण यह है कि प्रत्येक अवतार अपने तत्सम्बन्धी सात्विकादि गुणों का ही प्रदर्शन करता है। जैसे अग्नि के गुण में दाह और जल के गुण में शीतलता। सूर्य के गुण में प्रकाश तो पृथ्वी के गुण की उर्वरता एवं सहनशक्ति। इस सभी शक्तियों एवं तत्वों के अधिष्ठाता देवता भी अपने व्यक्तित्व एवं कर्म में उन्हीं गुणों का प्रदर्शन करते हैं।

अंशेन वासुदेवस्य जातो रामो महायशाः।
संकर्षणस्य चांशेन लक्ष्मणः परवीरहा॥
(विष्णुधर्मोत्तरपुराण, खण्ड – ०१, अध्याय – २१२, श्लोक – २१)

जैसे भगवान् श्रीकृष्ण, वासुदेव, गोविंद, आदि सब व्यवहार में समान व्यक्तित्व के लिये प्रयुक्त हैं, वैसे ही बलराम, बलभद्र, अनन्त, राम, बल, शेष, संकर्षण आदि भी समानरूप से ही समझे जाने चाहिए।

गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि।
रामेति लोकरमणाद्बलभद्रं बलोच्छ्रयात्॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध – १०, अध्याय – ०२, श्लोक – १३)

देवकी के गर्भ से खींच कर (योगमाया के द्वारा) रोहिणी के गर्भ में स्थापित होने से उन्हें संकर्षण कहते हैं। संसार को आनंद देने से राम और बल की अधिकता से बलभद्र कहते हैं।

ज्येष्ठः संकर्षणो नाम कनीयान्कृष्ण एव तु।
(हरिवंशपुराण, विष्णुपर्व, अध्याय – ०६, श्लोक – ०२)

ज्येष्ठावतार, बड़े भाई का नाम संकर्षण (बलराम) एवं कनिष्ठावतार, छोटे भाई का नाम कृष्ण है। यहां मात्र अवतार के समय पहले और बाद में आने से छोटे बड़े होने की बात है।

संकर्षणस्य विद्याया रक्तो वर्ण इहोच्यते।
(विश्वक्सेनसंहिता, अध्याय – १३, श्लोक – ०५)

संकर्षण सम्बन्धी विद्या का रंग लाल बताया गया है।

संकर्षणो रक्तवर्णः
(प्रश्नसंहिता, अध्याय – ३६, श्लोक – ०७)

संकर्षण का वर्ण लाल है।

ओंकार की साढ़े तीन मात्रा (अ, उ, म और बिंदु) के गुण क्रमशः सात्विक, राजस, तामस एवं गुणातीत हैं। इसमें मकार यानी तमोगुणी तत्व, जो संहार का कारक है, उसके अधिष्ठाता भगवान् संकर्षण ही है, जो लोकसंहार का प्रथम उपक्रम करते हैं।

संकर्षणो मकारस्तु
(लक्ष्मीतन्त्र, अध्याय – २४)

संकर्षति प्रजाश्चान्ते ह्यव्यक्ताय यतो विभुः।
ततः संकर्षणो नाम्ना विज्ञेयः शरणागतैः॥
(पद्मपुराण, भूमिखण्ड, अध्याय – ३९, श्लोक – १८)

सृष्टि के अंत में अव्यक्त ब्रह्म के प्रति सभी प्राणियों को बलपूर्वक खींचते हैं इसीलिए शरणागत जनों के द्वारा उन्हें संकर्षण के नाम से जाना जाता है।

रक्तवर्णस्तु राजसः
(प्रकाश संहिता, प्रथम परिच्छेद, अध्याय – ०४)

अब लाल रंग वाले संकर्षण हैं, तो लाल रंग किसका प्रतीक है ? रजोगुण का। इसीलिए संकर्षण तत्व में, एवं तदंशभूत बलराम जी में रजोगुण की प्रधानता है।

द्वितीया कालसंज्ञान्या तामसी शेषसंज्ञिता।
निहन्ति सकलांश्चान्ते वैष्णवी परमा तनुः॥
(कूर्मपुराण, अध्याय – ४८)

साथ ही, कालसंज्ञक एवं शेषसंज्ञक दूसरी वैष्णवी मूर्ति को तमोगुण वाली कहते हैं जो अन्त, प्रलयकाल में सबका संहार कर देती है।

रजोगुण की प्रधानता से क्या लक्षण दिखते हैं ?

श्रीमदादाभिजात्यादिः यत्र स्त्रीद्यूतमासवः ॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध – १०, अध्याय – १०, श्लोक – ०८)

ऐश्वर्य का मद, स्त्रियों से विहार, द्यूत एवं मद्य का सेवन, यह सब रजोगुण के प्रतिफल हैं।

रजोगुणी तत्व की प्रधानता वाले अवतार को धारण करने से बलराम जी में यह सब रजोगुणी लक्षण भी दिखते हैं। ऐश्वर्य के मद से ही उन्होंने क्रुद्ध होकर हस्तिनापुर के विनाश की लीला की। रैवतक पर्वत पर स्त्रियों के साथ विहार किया, अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी आदि के साथ द्यूतक्रीड़ा की तथा वारुणी मदिरा का सेवन भी करते थे।

शेषावतार का कार्य पृथ्वीर्वा ब्रह्माण्ड की स्थिति को सूक्ष्म शक्तियों से धारण किये रखना है।

शेषो भूत्वाहमेको हि धारयामि वसुंधराम्।
(ब्रह्मपुराण, अध्याय – ५६, श्लोक – २०)

पातालानामधश्चास्ते शेषो विष्णुश्च तामसः।
(अग्निपुराण, अध्याय – १२० श्लोक – ०४)

पाताल के नीचे तामसी विष्णु (पांचरात्र मत से विष्णुदेव की तामसी मूर्ति को संकर्षण कहते हैं) विश्राम करती है।

पातालानामधश्चान्ते शेषो विष्णोश्च तामसः ।
गुणानन्यान् स चानन्तः शिरसा धारयन्महीम्॥
(अग्निपुराण, अध्याय – १०५)

विष्णु के तामसी रूप शेषनाग पाताल के भी नीचे अन्तभाग में रहते हैं जो अन्य (राजस की प्रधानता एवं सत्व की न्यूनता आदि गुणों) को भी धारण करते हुए मस्तक पर पृथ्वी को धारण करते हैं।

पद्मपुराण की शिवगीता में कहते हैं –
दुःखास्पदं रक्तवर्णं चञ्चलं च रजो मतम्।

रक्तवर्ण वाला यह रजोगुण दुःख एवं चंचलता देता है। रजोगुण की प्रधानता से हुए लक्ष्मणावतार में चंचलता दिखती ही है।

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में कहते हैं –
रक्तवर्णं रजः प्रोक्तमप्रीतिकरमद्‌भुतम् ।

अद्भुत, किन्तु कष्टकारक कर्म कराने वाले रजोगुण का वर्ण लाल है। बलराम जी अद्भुतकर्मा भी थे किंतु उन्होंने महाभारत में तटस्थ रहकर, सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ तय करके और भी ऐसे कतिपय भावनात्मक निर्णयों से अपने सुहृदों के लिए किंचित् कष्ट की स्थिति निर्मित करके रजोगुणी अवतार की लीला सार्थक की थी।

अब हम उनके मदिरापान की बात करते हैं। शास्त्रों में व्यापकता से मदिरापान की निंदा की गई है। हां, कुछ औषधीय प्रयोगों में इसे ग्राह्य बताया गया है किंतु वहां भी इसे श्रेष्ठ नहीं कहा गया है। इसका कारण है कि –

बुद्धिं लुम्पति यद्रव्यं मदकारि तदुच्यते।
तमोगुणप्रधानं च यथा मद्यं सुरादिकम्॥
(शार्ङ्गधर संहिता, पूर्वखण्ड, अध्याय – ०४, श्लोक – २१ )

जो द्रव्य बुद्धि का नाश कर दे, उसे तमोगुण की प्रधानता के कारण मदकारक कहते हैं, जैसे मद्य, सुरा आदि।

मद्य, मधु, सुरा, मदिरा आदि ये सब शब्द पर्यायवाची हैं। इनका अर्थ है, मदहोश करने वाला। जैसे प्याज़, शलगम आदि भी सब्जी है और लौकी, पपीता आदि भी। किन्तु प्याज़ आदि ग्राह्य नहीं है, और पपीता आदि ग्राह्य है। वैसे ही मधु या सुरा की श्रेणी में शराब, शहद, शर्बत, यहां तक कि अमृत आदि सब आ जाएंगे। उनमें से कुछ ग्राह्य हैं, कुछ नहीं। यथा, स्त्रीरमण शब्द का अर्थ पत्नी से रमण ही होता है। माता भी स्त्री ही कहाएंगी, किन्तु वहाँ पत्नी वाला भाव नहीं रहेगा। तो जैसे स्त्री एक जातिवाचक शब्द है, उसमें माता पत्नी बहन आदि ग्राह्य अग्राह्य भेद हैं, वैसे ही मधु, सुरा आदि जातिवाचक हैं जिसमें ग्राह्य एवं अग्राह्य श्रेणी हैं। आयुर्वेदिक ग्रंथों में सुरा से रोगों की चिकित्सा का व्यापक वर्णन है।

यदा नाडी भवेत्क्षीणा रोगेऽस्मिन् भिषजा तदा।
सजला बललाभाय मृतसञ्जीवनी सुरा॥
(भैषज्य-रत्नावली, अध्याय – ९९, श्लोक – ०६)

बलराम जी केवल वारुणी नाम का ही पेयविशेष ग्रहण करते थे, किसी अन्य मदिरा आदि का नहीं। वारुणी को किस ऋतु में पिये, किस रोग में सेवन करके, इसके कुछ सामान्य उदाहरण देखें –

वाग्भट संहिता के चिकित्सास्थान का वचन है –
स्नेहाढ्यैः सक्तुभिर्युक्तां लवणां वारुणीं पिबेत्॥

सुश्रुत संहिता के उत्तर तन्त्र का वचन है –
सुसंस्कृताः प्रदेयाः स्युर्घृतपूरा विशेषतः।
वारुणीं च पिबेज्जन्तुस्तथा संपद्यते सुखी॥

शीतलत्वादृतोश्चापि न तावत्परिभिद्यते।
तस्मात्तैलगुडोपेतां वारुणीं शिशिरे पिबेत्॥
(भेल संहिता, विमान स्थान, अध्याय – ०६, श्लोक – २०)