Home खण्डन मण्डन द्रौपदी के कितने पति थे ?

द्रौपदी के कितने पति थे ?

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शास्त्रों के परम्परागत अध्ययन से विमुख लोगों ने एक नया प्रपञ्च फैलाया है – “द्रौपदी के पांच नहीं, एक ही पति थे” । इस विषय में उन्होंने एक लघु लेख भी लिखा है, जिसका बड़ा हास्यास्पद नाम दिया है, “२०० वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन” … इन्हें लगता है कि मैक्समूलर आदि ने २०० वर्ष पूर्व महाभारत आदि में कुछ मिलावट कर दी, अथवा समाज में एक भ्रम फैला दिया कि द्रौपदी के पांच पति थे। इस लेख में हम इसी का समाधान करेंगे।

💐 कुतर्की लेख की भूमिका 💐

जर्मन के संस्कृत जानकार मैक्समूलर को जब विलियम हंटर की कमेटी के कहने पर वैदिक धर्म के आर्य ग्रंथों को बिगाड़ने का जिम्मा सौंपा गया तो उसमे मनु स्मृति, रामायण, वेद के साथ साथ महाभारत के चरित्रों को बिगाड़ कर दिखाने का भी काम किया गया। किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी पात्र – चरित्रों में विक्षेप करके उसमे झूठ का तड़का लगाकर महानायकों को चरित्रहीन, दुश्चरित्र, अधर्मी सिद्ध करना था, जिससे भारतीय जनमानस के हृदय में अपने ग्रंथो और महान पवित्र चरित्रों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जाग जाय और प्राचीन आर्य संस्कृति सभ्यता को निम्न दृष्टि से देखने लगें और फिर वैदिक धर्म से आस्था और विश्वास समाप्त हो जाय। लेकिन आर्य नागरिकों के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि मूल महाभारत के अध्ययन बाद सबके सामने द्रोपदी के पाँच पति के दुष्प्रचार का सप्रमाण खण्डन किया जा रहा है। द्रोपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजों के हर दुष्प्रचार और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।

💐 कुतर्की लेख की भूमिका का समाधान 💐

वैसे तो मैंने इन प्रक्षिप्तवादियों के षड्यंत्र के ऊपर कई विस्तृत लेख लिखे ही हैं, किन्तु जो चली बात हिन्दूग्रन्थों से छेड़छाड़ की, तो यह बताईये कि भारत में एक ही पुस्तक तो थी नहीं, कि छेड़छाड़ हो जाए। लगभग सभी गुरुकुलों में सैकड़ों ग्रन्थ थीं क्या सबमें बैठ कर मिलावट की ? और जो श्रौत परम्परा के वीर थे , समग्र ग्रन्थ को याद रखने वे थे, आज भी हैं, उनके मस्तिष्क में भी छेड़छाड़ की गयी ? उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया ? और जो प्रतियां अभी भी मठों और गीताप्रेस, खेमराज, चौखम्बा, सरस्वती महल, सम्पूर्णानंद आदि के संग्रहालय में, कश्मीर महाराज, राजस्थान के अनेकानेक महाराज, दक्षिण के मठ और संग्रहालय में हैं, जो मैक्समूलर से पुरानी हैं, उनमें भी यही पाठ है। फिर कैसे मिलावट हुई ?

लाखों विद्वान, भाष्यकार, श्रुतधरों के देश में मानसिक और लिखित असंख्य प्रतियां सब मिलावटी ? गजब है न ? और एक बात, वेदों में मिलावट की बात क्यों नहीं की जाती ? क्या वहां मिलावट नहीं ? या फिर उन्हें छोड़ दिया गया ? यदि हाँ, तो क्यों ? एक बात बताईये, मैक्समूलर आदि अंग्रेजों ने जो भाष्य आदि लिखे, वो वेदों पर ही लिखे। पुराणों पर तो काम हुआ ही नहीं विशेष। फिर मिलावट होनी चाहिए वेदों में, लेकिन उसका तो उल्लेख तक नहीं करते। जहाँ काम हुआ नहीं, वहां कैसी मिलावट ? ये भ्रम दयानन्द मत वाले समाजियों का फैलाया है।

हाँ, एक जगह मिलावट है। वो है वेद के भाष्य में। अर्थात मैक्समूलर ने जो छद्म भाष्य लिखा उसमें। मूल में कोई मिलावट नहीं, उसके अंग्रेजी प्रायोजित अनुवाद में मिलावट है, कुत्सितार्थ है, वो भी मात्र वेदों का। मूल तब भी थे, सही थे और यही थे। और आज भी हैं, सही हैं और यही हैं। छद्म भाष्यों का विरोध जम कर हुआ और हो रहा है। किन्तु असंख्य मठ, मन्दिर, गुरुकुल और कुशाग्र श्रुतधर विद्वानों के देश में इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थों में मिलावट सम्भव नहीं। सम्भव भी तो प्रसार नहीं, तुरन्त दण्डित हो जाएंगे।

दक्षिण के महानतम शृंगेरी, पेजावर, उडुपी, और कामकोटि आदि के मठ में जो ग्रन्थ ७०० वर्षों से पुराने पड़े हैं, उनमें भी मिलावट की गयी ? वो भी मैक्समूलर की जन्म के ४०० साल पहले ? वाह रे प्रक्षिप्तवादियों !! एक सत्य बताऊँ ? ये अफवाह इसीलिए बनायी गयी ताकि हमें अपने ग्रन्थों पर सन्देह हो और अनास्था हो जाए। जब मिठाई से मार सकते हैं तो विष क्यों दें ? जब केवल अफवाह से काम चल सकता है तो मेहनत कौन करें ? मिलावट अनुवाद में हुई है जिसका खण्डन शंकराचार्य पीठ आदि और सैकडों मान्य विद्वान कर चुके हैं। बीच में एकबार समाजियों के चहेते राजीव दीक्षित जी भी इनके फेर में फंसे थे। विलम्ब से उन्हें भी सत्य का ज्ञान हुआ जब कांची पीठ के अधिपति से मिले। पुराणों के विषय में व्यर्थ विवाद करने वाले, स्वयं को श्रेष्ठ कहने वाले म्लेच्छों के लिए मैं उनकी ही शैली में एक बात कहूंगा, जो वर्षों पहले किसी ने कही थी –

उलझनों में ही, उलझ कर, रह गए वो बदनसीब,
जो तेरी उलझी हुई जुल्फों को सुलझाने गए …

अच्छा, ये बताओ, कि तुमलोग कहते हो पुराणों में मिलावट की गयी है, हर वस्तु में मिलावट हो रही है, तो पुराणों में सम्भव क्यों नहीं !! तो, जब पुराणों में मिलावट है, तो वेदों को क्यों छोड़ दिया गया ? उनमें मिलावट सम्भव नहीं थी क्या ? और यदि तुम कहो कि मिलावट तो की थी, लेकिन दयानंद ने शुद्ध कर दिया। तो ये शुद्धीकरण केवल वेदों में ही क्यों किया दयानन्द ने ? पुराणों में क्यों नहीं ? उन्हें क्या ईश्वर ने इसकी ठेकेदारी नहीं दी थी ? अथवा उनकी बुद्धि पुराणों की दिव्यता के आगे फीकी पड़ गयी ?

पुराणों की ये मिलावट केवल उन्हीं को, अथवा उनसे पूर्वापर अन्य सहस्रों विद्वानों को क्यों नहीं दिखी ? बाकियों को क्यों नहीं ? जहाँ जहाँ शंकराचार्य जी, रामानुजाचार्य जी और अन्यान्य विद्वत् परिषत् के द्वारा दयानन्द मत खण्डित किया गया, आर्य समाजी हार हार कर भागे, उन विजेताओं को पौराणिक मिलावट क्यों न दिखी ?

अब हम द्रौपदी जी के विषय में एक सरल बात समझ लेते हैं। इस बात के लिए मैं मात्र संकेत कर रहा हूँ, श्लोकादि अधिक नहीं दे रहा, वाल्मीकीय रामायण और महाभारत आदि में ही श्लोक मिल जाएंगे, इसीलिए मात्र संकेत कर दे रहा हूँ।

१) पूर्व जन्म में वेदवती ने श्राप दिया था रावण को कि उसके घर जाकर उसका सर्वनाश करेंगी ऐसा कहकर वेदवती अग्नि में समाहित हो गयी।

२) सीताहरण की लीला से पूर्व श्रीरामजी ने वास्तविक सीताजी को अग्नि में छिपा दिया और अग्नि से वेदवती रूपी छाया सीता को निकाल कर स्थापित कर दिया।

३) छाया सीता का हरण हुआ और रावण वध हुआ। उसके बाद अग्निपरीक्षा के बहाने छाया सीता को वापस अग्नि में प्रवेश कराकर अग्निदेव से वास्तविक सीता को प्राप्त कर लिया।

४) पुनः वही पहले जन्म की वेदवती अथवा दूसरे जन्म की छाया सीता, जो अग्नि में ही निवास कर रही थी, तीसरे जन्म में द्रौपदी के रूप में यज्ञकुण्ड की अग्नि से प्रकट हुई।

सीताजी की इस प्रकार से हुई अदला बदली को लक्ष्मण जी तक से छिपा कर रखा गया था। एक कल्प में काली के अंश से, तो एक कल्प में लक्ष्मी के अंश से द्रौपदी का प्राकट्य अग्निकुण्ड के मध्य से हुआ है।

मदंशसम्भवां कृष्णामवमंस्यति दुर्मतिः।
दुर्योधनाह्वयः क्रूरः सर्वेषां कंण्टकोपमः॥
(महाभागवत उपपुराण, अध्याय – ४९, श्लोक – ५०)

काली देवी ने कहा – मेरे अंश से उत्पन्न कृष्णा (द्रौपदी) का अपमान सभी प्राणियों के लिए कांटे के समान क्रूर दुर्मति दुर्योधन करेगा।

पुनः कुमारी पाञ्चाली सुभगा वेदिमध्यगा।
अन्तर्वेद्यां समुद्भूता कन्या सा सुमनोहरा॥
श्यामा पद्मपलाशाक्षी नीलकुञ्चितमूर्धजा।
मानुषं विग्रहं कृत्वा साक्षाच्छ्रीरिव वर्णिनी॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय – १४९, श्लोक – ६१)

इसके बाद सुंदर वेश वाली कुमारी पांचाली यज्ञकुण्ड की वेदी के अंदर से प्रकट हुई, जो श्यामवर्ण की थी, जिसके नेत्र कमल की पंखुड़ियों के समान थे एवं जिसके केश घुंघराले एवं नीले रंग के थे। उसका स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो साक्षात् देवी लक्ष्मी ही मनुष्य का रूप धारण करके आयी हों।

लक्ष्मी की अवतार द्रौपदी हों अथवा वसु के अवतार भीष्म पितामह, कलियुग का अवतार दुर्योधन हो या सूर्यांश से सहस्रकवच दम्भोद्भव का अवतार कर्ण, सभी वहां पाप पुण्यादि के क्षोभ के निमित्त बनकर पृथ्वी के भारहरण के लिए होने वाले श्रीकृष्णचन्द्र महावतार की लीला में सहयोग करने के लिए आये हुए थे।

अवतार के कई भेद हैं। पूर्णावतार, कलावतार, अंशावतार, आवेशावतार आदि। पूर्णावतार कल्प में एक बार होता है। कलावतार एक कल्प में दो तीन बार, तथा अंश एवं आवेशावतार आदि कई कई बार हो सकते हैं। कल्कि की गणना कहीं अंशावतार तो कहीं आवेशावतार में होती है। पाद्म कल्प में श्रीराम अवतार अट्ठाईसवें में नहीं, चौबीसवें त्रेता में हुआ था। श्वेतवाराह कल्प में श्रीकृष्ण अवतार अट्ठाईसवें द्वापर में हुआ। जिस कल्प में रामावतार सातवें मन्वन्तर के अट्ठाईसवें त्रेता में हुआ था उसे सारस्वत कहते हैं। अब ये अवतार पुनः अगले कल्प में होंगे। अवतारों के सन्दर्भ में कुछ बातें ध्यातव्य हैं –

१) ब्रह्म काल और कर्म से परे हैं।

२) श्रीकृष्ण और श्रीराम कर्मबन्धन में नहीं हैं इसीलिए ब्रह्म का कार्य, स्वरूप, स्वभाव आदि वही रहता है किन्तु जीव का बदलता रहता है।

३) ब्रह्म का अर्थ पांचरात्र मत से चतुर्व्यूह मूर्ति और उनकी शक्ति से है। इसमें श्रीकृष्ण, बलराम अथवा रामादि चारों भाई और उनकी सीतादि पत्नियां आएंगी। ब्रह्म का अवतारी व्यक्तित्व और शक्ति समान रहते हैं।

४) जीव में दशरथ कौशल्या आदि, रावण आदि, वसुदेव देवकी आदि आएंगे।

५) किसी कल्प में कश्यप अदिति दशरथ कौशल्या बने और किसी कल्प में स्वायम्भुव मनु और शतरूपा। किसी कल्प में एक ब्राह्मण परिवार बना था, जिसका वर्णन स्कन्दपुराण के कार्तिक माहात्म्य में आता है।

६) घटनाक्रम में आंशिक बदलाव होता है। जैसे जाम्बवन्त जी ने श्रीराम जी को जो पुराकल्प रामायण सुनाई है, उसमें कैकेयी थी ही नहीं। उसमें राजा दशरथ की चार पत्नियां थीं और सबसे एक एक सन्तान थी। तो कुछ घटना बदलती है। एक कल्प में जय विजय, तो कभी रुद्रगण, कभी प्रतापभानु तो कभी जलन्धर के अंश से रावण बनता है।

ब्रह्म के भी शिव, विष्णु, काली आदि कई सगुण रूप हैं। जिनमें से भी कभी अवतार व्यतिक्रम हो जाता है। जैसे श्रीमहाभागवत उपपुराण में यह वर्णन है कि पिछले कल्प में कालिका ने कृष्ण रूप और शिव ने राधिकावतार लिया था। विष्णु भगवान् उसमें अर्जुन बने थे। साथ ही देवी ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि अगले कल्प का कृष्णावतार श्रीविष्णु जी लेंगे। इसीलिए देवताओं में अभेदबुद्धि रखने कहा गया है।

कल्पांतरे तु भूपृष्ठे द्वापरान्ते महामुने।
विष्णु: श्रीकृष्णरूपेण पूर्णांशेन जगत्प्रभु:॥
शम्भोर्वरप्रदानेन सम्भविष्यति लीलया।
निहनिष्यति भूभारमेवमेव महामते॥
(महाभागवत, अध्याय – ५८, श्लोक – ५१-५२)

ऐसे ही हम देखें तो श्रीमद्भागवत में जिस कल्प की कथा है, उसमें प्रह्लाद जी ५ वर्ष के लगभग थे, जब नृसिंह भगवान् ने उनकी रक्षा हेतु अवतार लेकर दो घड़ी में ही राक्षसों का वध करके लीला पूर्ण कर दी थी। किन्तु एक कल्प में ऐसा भी हो चुका है कि जब नृसिंह भगवान् हिरण्यकशिपु के वध के लिए आये, तो प्रह्लाद जी ही उनसे भिड़ गए। प्रह्लाद जी को लगा कि कोई शत्रु मेरे पिता को मारना चाहता है। इसीलिए उन्होंने अपने संह्राद, अनुह्राद आदि भाईयों के साथ मिलकर नृसिंह जी से ही युद्ध प्रारम्भ कर दिया। करीब दो तीन सौ वर्ष तक युद्ध के बाद प्रह्लाद जी को अपनी भूल ज्ञात हुई और उन्होंने नृसिंह देव को विष्णुरूप में पहचान लिया, तब युद्ध से विरत हुए और भगवान ने अपनी लीला पूर्ण की। इस कथा का सांकेतिक वर्णन सौर पुराण में है।

हिरण्यकशिपुर्दृष्ट्वा नृसिंहमतिभीषणम्।
वधाय प्रेषयामास प्रह्लादादीन् महाऽसुरान्॥
प्रह्लादश्चानुह्लादश्च संह्लादो ह्लाद एव च।
हिरण्यकशिपो: पुत्राश्चत्वारः प्रथितौजसः॥
………………………………
नरसिंहेन ते सार्धं युयुधुर्दानवास्तदा॥

विनिवृत्तोऽथ संग्रामात्प्रह्लादो दैत्यराट् ततः॥
ज्ञात्वा तु भगवद्भावं नृसिंहस्यामितौजसः।
ध्यात्वा नारायणं देवं वारयामास दानवान्॥
एष नारायणो योगी परमात्मा सनातनः।
ध्यातव्यो न तु योद्धव्यो भवद्भिरिति निश्चितम्॥
पुत्रोदितमनादृत्य हिरण्यकशिपु: पुनः।
युयुधे हरिणा सार्धं यावद्वर्षशतत्रयम्॥
अथ विश्वात्मको विष्णु: क्रोधसंरक्तलोचनः।
नखैर्विदारयामास हिरण्यकशिपुं तदा॥
(सौर पुराण, अध्याय – २८)

ऐसे ही वैवस्वत मन्वतर में जो मत्स्यावतार हुआ वह राजा सत्यव्रत को अगले मनु, श्राद्धदेव के रूप में पदोन्नत करने के लिए हुए। किन्तु स्वायंभुव मन्वतर का मत्स्यावतार कपिल मुनि के श्राप के कारण हुए प्रलय से प्रजा की रक्षा करने के लिए हुए था। तो कुछ घटनाओं में परिवर्तन नहीं होता है और कुछ में अंतर होता है। ब्रह्म का किरदार वही रहता है, जीव का बदलता है।

जैसे आप एक ही मार्ग पर रोज अपने ऑफिस जाते हैं। किंतु उसमें जो मूल फार्मा है, वह एक ही है पर घटनाओं में कुछ परिवर्तन होता हैं। आप इसकी तो भविष्यवाणी कर सकते हैं कि रास्ते में कितने मोड़, कौन सी दुकान, कौन सा सिग्नल आदि आएगा, किन्तु वह दुकान और सिग्नल किन लोगों से भरा होगा, यह नहीं बता सकते।इसी प्रकार से आप बता तो सकते हैं कि ताड़का वध, वनवास, सीताहरण, लंकादहन, रावणवध आदि होगा किन्तु बिल्कुल सटीक शैली और जीवों के पात्र की भविष्यवाणी नहीं कर सकते। इसीलिए पाद्म कल्प में श्रीरामजी चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को रावण वध करते हैं, तो सारस्वत कल्प में विजयादशमी के दिन। कर्मफल का सिद्धांत चलता रहता है, इसीलिए जिस जीव का कर्मफल रावण बनने लायक होता है, उसे अगली लीला में रावण बनाते हैं और जिसका कर्मफल दशरथ बनने लायक होता है, उसे दशरथ बनाते हैं। कर्मफल का उपभोग भी हो जाता है और वह लीला भी पूर्ण हो जाती है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में जो कथा है, वह रथन्तर कल्प की घटना पर आधारित है। उस कल्प में जो कुब्जा है, वह पिछले जन्म की शूर्पणखा थी, किन्तु कभी श्रीरामावतार की पिङ्गला नाम की वेश्या भी अगले जन्म में श्रीकृष्णावतार की कुब्जा बनती है। ऐसे ही अलग अलग कल्पों की कथा से अलग अलग ग्रंथ बने हैं। पुराणों का, महाभारत आदि का रहस्य गूढ़ है। जिसमें श्रद्धा न हो, अपना प्रलाप कहीं और जाकर करें। द्रौपदी का जन्म, विवाह, आदि सब कुछ अलौकिक था। वे अयोनिजा दिव्य कन्या थीं, उनके साथ लौकिक न्याय से हम समीक्षा नहीं कर सकते हैं।

भ्रम फैलाने वाले कहते हैं कि द्रौपदी के पांच पतियों वाली बात को मैक्समूलर ने २०० वर्ष पहले मिलावट से फैलाया है। किंतु मैं उन्हें आठ सौ वर्ष पूर्व में हुए वायुदेव के अवतार द्वैतवेदान्तप्रवर्तकाचार्य श्रीमज्जगद्गुरु मध्वाचार्य जी के द्वारा लिखे गए “महाभारततात्पर्यनिर्णय” नामक सन्देहनिवारक ग्रंथ से प्रमाण देता हूँ, जिसकी एक हस्तलिखित प्रति आज भी उत्तरादि मठ के स्वामी श्रीजयतीर्थ संस्कृत हस्तलिखित पुस्तकालय में उपलब्ध है।

कृष्णस्तदाऽह नृपतिं प्रति देहि कन्यां,
सर्वेभ्य एव वृषवायुपुरन्दरा हि।
नासत्यदस्रसहिता इम एव इन्द्राः,
पूर्वे च सम्प्रतितनश्च हरेर्हि पश्चात्॥
एषां श्रियश्च निखिला अपिचैकदेहाः,
पुत्री तवैव न ततोऽत्र विरुद्धता हि।
इत्युक्तवत्यपि यदा द्रुपदश्चकार,
संवादिनीं न धियमेनमथाऽह कृष्णः॥
दिव्यं हि दर्शनमिदं तव दत्तमद्य,
पश्याऽशु पाण्डुतनयान् दिवि सं स्थितांस्त्वम्।
एतां च ते दुहितरं सह तैः पृथक्स्थां,
तल्लक्षणैः सह ततः कुरु ते यथेष्टम्॥
इत्युक्तवाक्यमनु तान् स ददर्श राजा,
कृष्णप्रसादबलतो दिवि तादृशांश्च।
एतान्निशाम्य चरणौ जगदीशितुश्च,
भीतो जगाम शरणं तदनादरेण॥
दत्वाऽभयं स भगवान् द्रुपदस्य कार्ये,
तेनोमिति स्म कथिते स्वयमेव सर्वाम्।
वैवाहिकीं कृतिमथ व्यदधाच्च धौम्य-
युक्तः क्रमेण जगृहुर्निखिलाश्च पाणिम्॥
(महाभारत तात्पर्य निर्णय, अध्याय – १९, श्लोक – १५४-१५८)

तात्पर्य यह है कि भगवान् वेदव्यास जी ने राजा द्रुपद को कहा कि धर्म, वायु, इन्द्र, नासत्य एवं दस्र (अश्विनीकुमार) के अंशभूत इन पांडवों को अपनी पुत्री प्रदान करो। ये सभी पहले इन्द्र रह चुके हैं, जिनकी राज्यश्री के अंश से ही द्रौपदी हुई है, इसीलिए ऐसे विवाह में कोई धर्मविरुद्ध बात नहीं होगी। इसके बाद भी द्रुपद का मन इस रहस्य को समझ नहीं पा रहा था इसीलिए वेदव्यास जी ने उन्हें आकाश में स्थित स्वलक्षणों से युक्त पांडवों एवं उनकी पत्नीरूप में खड़ी द्रौपदी के दिव्यरूप का दर्शन कराया और कहा, कि अब तुम्हारी जो इच्छा हो, सो करो। उन्हें देखकर राजा द्रुपद भयभीत होकर वेदव्यास मुनि की शरण में गए और मुनि ने उन्हें अभय देकर धौम्य मुनि के निर्देशानुसार विवाहसम्बन्धी समस्त कृत्य सम्पादित कराए।

उपर्युक्त प्रमाण से, जो मैक्समूलर से सैकड़ों वर्ष पूर्व, महाभारत के ही तात्पर्य का निर्णय करते हुए श्रीमध्वाचार्य जी ने लिखा था, यह सिद्ध होता है कि द्रौपदी जी के पांच पतियों की बात कोई “२०० वर्षों से प्रचारित होने वाला झूठ” नहीं है। आक्षेपकर्ता लिखता है “द्रौपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजों के हर दुष्प्रचार और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।”

किन्तु हम देखते हैं कि जैसा कि आर्य समाजी लोग प्रारम्भ से ही ब्राह्मण, पुरोहित एवं पुराणागम के विशेषज्ञ विद्वानों से चिढ़ते हैं, कारण कि आर्य समाज के काल्पनिक सिद्धांत हमेशा इन्हीं के कारण खंडित होते आये हैं, अतएव ये बात केवल भर्त्सना हेतु कही गयी है। वास्तव में आर्य समाज के लोग ही अंग्रेजों के साथ मिलकर हमारे ग्रंथों को मिलावटी और अप्रामाणिक सिद्ध करने का षड्यंत्र करते आये हैं। इन लोगों ने कहा कि इन्होंने “मूल महाभारत” का अध्ययन करके सिद्ध किया है कि द्रौपदी का एक ही पति था। क्या ये लोग वह मूल प्रति दिखाएंगे, जो मैक्समूलर से अधिक पुरानी हो एवं उसमें द्रौपदी के पांच पतियों का वर्णन नहीं हो ? वस्तुतः ये लोग स्वयं ही वेदमन्त्रों को अपनी सुविधा के अनुसार बदल देते हैं, अब तो एक दयानंदोपनिषत् भी लिख दिया है। स्वयं प्राचीन प्रतियों की उपेक्षा करके अपने से मिलावट करके महाभारत और रामायण के श्लोकों को हटाकर, अपने से श्लोक जोड़कर मिलावट करके छाप रहे हैं और उस कुकृत्य का आरोप हमलोगों पर लगा देते हैं।