क्या नेत्रहीन या विकलांग व्यक्ति संन्यास के अधिकारी हैं ?
आजकल संन्यास लेने का ‘फैशन’ चल पड़ा है। कोई भी, कहीं भी, किसी से भी संन्यास ले रहा है, और संन्यास लेने के बाद कुछ भी करने में तत्पर हो जा रहा है। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों ने कलौ संन्यासवर्जित: तक कह दिया। बिना वर्णाश्रम-शुद्धता पुष्टि किये, गुण-लिंग-उद्देश्य का विचार किये, सबों को संन्यासी ही बनना है। उसके बाद यदि कुछ विशेष धनार्जन एवं जनबल हो गया तो फिर पीठाधीश्वर, जगद्गुरु, और न जाने क्या क्या उपाधियां भी मिलने लगती हैं, और सनातन धर्म की हानि होने लगती है।
पूर्वकाल में लिखे गए मेरे कतिपय लेखों के कारण इसी प्रकार के एक ख्यातिलब्ध रामानंदी “जगद्गुरु” जी के समर्थक भड़क गए क्योंकि मैंने शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर नेत्रहीन व्यक्ति के संन्यास ग्रहण का निषेध किया था। अस्तु, बहुत विवाद हुआ एवं देहान्ध तथा ज्ञानान्ध जनों के कुतर्कों ने पुनः भ्रम की वैतरणी बहाई। अब तो विकलांग के लिए कुछ राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वालों नेताओं में एक नया ही शब्द निकाल रखा है, – दिव्यांग।
दिव्यता वह है, जिसे देख कर लोग चमत्कृत हों। दिव्यता वह है, जो पुण्यकर्म के कारण सौभाग्य से प्राप्त हुई हो, जिसमें विलक्षणता हो, जो सामान्य से उत्कृष्ट हो एवं जिसकी ओर आकर्षित होकर सभी उसे प्राप्त करने या वैसा ही बनने की कामना करें। एक अंगहीन व्यक्ति को दिव्यांग कहना, उसका सम्मान नहीं, अपितु उसकी विवशता का अपमान ही है।
किस विकलांग को अपनी असमर्थता के कारण दिव्यता का आभास होता होगा ? कौन सा व्यक्ति उसके अंगों की “दिव्यता” को देखकर अपने अंगों को भी वैसा ही दिव्य बनाने की इच्छा करता होगा ? राजनैतिक महत्वाकांक्षा से ग्रस्त नेता एवं धार्मिक दम्भ से भरे धर्मोपदेशक, जब स्वयं को सर्वसमर्थ समझकर शब्द एवं धर्म की अप्रासंगिक एवं अनुपयुक्त व्याख्या करने लगते हैं, तब ऐसा ही होता है।
पूर्वजन्म के किये गए पाप से ही इस जन्म में विकलांगता होती है, ऐसा सनातन धर्म में शास्त्र प्रमाण हैं। वैसे तो इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है, क्योंकि अलग अलग प्रकार की विकलांगता का कारण अलग अलग कर्म ही हैं। यदि हम कर्मफल को न मानें, तो भला जन्मजात असाध्य रोगों से ग्रस्त अथवा अंगहीनता से व्यथित देह वाले बच्चे ने कौन सा पाप किया था, क्योंकि इस जन्म के कर्म का तो प्रारम्भ भी नहीं हुआ !
दीर्घजीवी च क्षीणायुः सुखी दुःखी च निश्चितम्।
अन्धादयश्चाङ्गहीनाः कुत्सितेन च कर्मणा॥
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृतिखण्ड, २६-०२)
कौन लम्बी आयु वाला होगा तथा कौन अल्पायु होगा, कौन सुखी या कौन दुःखी होगा, ये सब पूर्वकृत कर्मों के आधार पर निश्चित होता है। ऐसे ही, अंधत्व आदि से ग्रस्त अंगहीन भी पूर्व के पापकर्म के कारण ही होते हैं।
विवादित विषय में नेत्रहीनता से ग्रस्त व्यक्तियों पर विशेष ध्यान दिया गया था, इसीलिए उदाहरणस्वरूप नेत्रहीन होने का शास्त्रीय कारण ही प्रस्तुत करता हूँ, जो विश्वप्रसिद्ध सावित्री और यमराज के सम्वाद के अंतर्गत वर्णित है –
अन्धो दीपापहारी स्यात्
अन्धो भवति गोघ्नस्तु
(विष्णुधर्मोत्तर पुराण, खण्ड २, अध्याय १२१, ०९)
अंधकार करने के उद्देश्य से दीपक बुझाने वाला, एवं गोहत्या करने वाला अगले जन्म में अन्धा होता है।
इस प्रकार से हम समझते हैं कि कोई भी रोग, दरिद्रता, अज्ञान, कष्ट और विकलांगता आदि में कोई दिव्यता नहीं है, अपितु यह स्वोपार्जित पापकर्म का ही फल है। विकलांग को सम्मानपूर्वक सहयोग दें, उसका उपहास न करें, उसकी सेवा करें, ये सब ठीक है, किन्तु उसे दिव्यांग न कह दें।
कुछ लोग मेरे विरोध में सन्त सूरदासजी का उदाहरण देते हैं। मैं उनकी बात का विरोध नहीं करता। ये कहीं नहीं लिखा कि पूर्वकृत पाप के कारण कोई इन जन्म में किसी अक्षमता से ग्रस्त है तो वह इस जन्म में भी पाप ही करेगा, अथवा उसका भगवान् की भक्ति अथवा प्राप्ति में अधिकार नहीं है। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कहता। सभी वर्ण, जाति, कुल, यहां तक कि समस्त संसार को अपनी अपनी मर्यादा के अनुरूप मार्ग का आश्रय लेकर भगवान् की भक्ति, लोकोपकार एवं मुक्ति का अधिकार है, एवं हमने पूर्व काल के प्रसङ्गों में ऐसा देखा भी है।
किन्तु यह ध्यातव्य है कि सूरदासजी कोई संन्यासी नहीं थे। वे भजनानंदी विरक्त साधु थे, परम् श्रेष्ठ भक्त थे, किन्तु संन्यासी नहीं थे। दोनों में भेद है। भक्त की स्थिति के लिए कोई भौतिक योग्यता नहीं चाहिए, संन्यास की स्थिति के लिए आध्यात्मिक योग्यता के साथ भौतिक योग्यता भी चाहिए। उसकी एक अलग विधि है। जैसे देशसेवा के लिए कोई विशेष योग्यता या सरकारी अनुमति नहीं चाहिए किन्तु यदि सेना में सम्मिलित होकर देशसेवा करनी है तो उसकी एक अलग योग्यता एवं विधि निश्चित है। ऐसा नहीं है कि नेत्रहीन व्यक्ति ज्ञानी नहीं हो सकता, सन्त या साधक नहीं हो सकता, अथवा भगवान् की प्राप्ति नहीं कर सकता। मैं ऐसा नहीं कह रहा, अपितु यह कह रहा हूँ कि दण्ड धारण पूर्वक संन्यासी नहीं बन सकता।
मेरे लेखों में मैंने विषय की भिन्नता से इस बात के ऊपर कोई विशेष प्रमाण नहीं दिया था, किन्तु संकेत किया था कि संन्यासोपनिषत्, नारदपरिव्राजकोपनिषत् आदि में नेत्रहीन या किसी शारीरिक अक्षमता वाले व्यक्ति के संन्यास के निषेध है। चूंकि नेत्रहीन शब्द से श्रीरामानन्दीय सम्प्रदाय के एक “जगद्गुरु” का विशेष सन्दर्भ निकल पड़ता है तो मैंने यह भी संकेत किया था कि श्रीमज्जगद्गुरु आद्यरामानन्दाचार्य जी के द्वारा आचार ग्रंथ के रूप में प्रणीत श्री वैष्णवमताब्जभास्कर में भी यही बात वर्णित है।
हाल ही में, मेरे लेखन के विपक्ष में किन्हीं विप्रश्रेष्ठ का (जिनके नाम-गुण के विषय में मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ), एक वीडियो फेसबुक पर आया, जिन्होंने यह दावा किया कि उन्होंने उपर्युक्त उपनिषदों एवं वैष्णवमताब्जभास्कर को “अक्षरशः” देख लिया किन्तु उन्हें वहां ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला। यह बड़ी हास्यास्पद बात है क्योंकि यह वैसी ही बात है कि कोई व्यक्ति यह दावा करे कि उसने ज्येष्ठ मास के निर्मल आकाश का घंटों अवलोकन किया किन्तु उसे इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला कि सूर्य का कोई अस्तित्व है। अस्तु, यदि उन्हें प्रमाण नहीं मिला तो इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रमाण है ही नहीं, अतः मैं प्रमाण इस लेख में संलग्न कर रहा हूँ।
सर्वप्रथम तो संन्यास है क्या ?
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
(श्रीमद्भगवद्गीता)
बुद्धिमान् जन उसी को संन्यास कहते हैं, जिसमें काम्य कर्म का न्यास हो जाता है, अर्थात् उस स्थिति में सभी कर्म इन्द्रियों के द्वारा स्वभावतः ही संचालित होते हैं, जिसमें जीव की कोई उत्प्रेरित फलाकांक्षा नहीं होती।
अब संन्यास की स्थिति किसे प्राप्त हो सकती है ?
इसमें कहा,
मुखजानामयं धर्मो वैष्णवं लिङ्गधारणम्
(अहिर्बुध्न्य संहिता)
विष्णुसम्बंधी संन्यास चिह्न (दण्ड) केवल मुख से उत्पन्न होने वाले ही धारण करें।
मुख से ब्राह्मण ही हुए हैं, ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्।
शेष द्विजाति (क्षत्रिय एवं वैश्य) के लिए अलिंग (दण्डरहित) संन्यास का विधान है, जो एक प्रकार वानप्रस्थीय नियमों तक ही सीमित है। स्त्री एवं शूद्रों के लिए अलिंग या सलिंग, किसी भी संन्यास का नियम नहीं है, वे गृहस्थ रहते हुए ही धर्मानुसार अपने परिवार एवं समाज की सेवा तथा पोषण करते हुए भगवान् की भक्ति करें, इससे उन्हें भी वही सद्गति मिलती है जो कठोर व्रत का पालन करने वाले संन्यासियों को मिलती है। फल में भेदभाव नहीं है, केवल क्रियामार्ग में भेद है।
हां, यदि ब्राह्मणेतर जन तीव्र वैराग्य से युक्त हो ही जाएं एवं संन्यस्त होना चाहें तो वे वीरभाव का आश्रय लेकर वन में चले जाएं। इस मार्ग का अनुसरण भगवान् ऋषभदेव (लौकिक दृष्टि से क्षत्रिय), महाभाग समाधि (लौकिक दृष्टि से वैश्य), महामना विदुर जी (लौकिक दृष्टि से शूद्र) एवं साध्वी गार्गी (लौकिक दृष्टि से स्त्री) ने किया था। ऐसे वीरभाव का समर्थन वैष्णव, शैव, शाक्त एवं कौल, सभी पन्थ करते हैं। इसमें व्यक्ति समस्त द्वंद्वों से स्वयं को स्वभावतः मुक्त करके अवधूत वृत्ति का आश्रय लेकर ब्रह्मचिन्तन करते हुए प्राकृतिक दावाग्नि, बाढ़, भूस्खलन, हिंस्र जीव आदि के माध्यम से देहनाश करके परमपद को प्राप्त करता है।