Home धर्म निर्णय क्या नेत्रहीन या विकलांग व्यक्ति संन्यास ले सकते हैं ?

क्या नेत्रहीन या विकलांग व्यक्ति संन्यास ले सकते हैं ?

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सभी वर्णों के स्त्री पुरुषों के लिए यही विधान शास्त्रोक्त है, जिसका अतिक्रमण करना घोर पाप का निमित्त बनता है। विदुर जी स्वयं धर्मावतार थे, ब्रह्मज्ञानी थे, परम् भगवद्भक्त थे किंतु उन्होंने देहगत अवस्था की मर्यादा के कारण धृतराष्ट्र जी को यह बात कही –

शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यद्वक्तुमुत्सहे।
कुमारस्य तु याबुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम्॥
ब्राह्मीं हि योनिमापन्नः सगुह्यमपि यो वदेत्।
न तेन गर्ह्यो देवानां तस्मादेतद्ब्रवीमि ते॥(

महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय – ४१, श्लोक – ०५-०६)

शूद्र योनि में जन्म लेने से मैं इससे अधिक उपदेश आपको नहीं दे सकता हूँ। इस विषय में कुमार (सनत्सुजात) की जो मति है, उसे आप मेरी भी मति जानें। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला यदि गुप्त रहस्यों वाले ज्ञान को भी उपदिष्ट करता है तो देवता उसकी निंदा नहीं करते, इसीलिए मैं ऐसा कहता हूँ।

विदुर जी स्वयं धर्म के अवतार थे, उन्होंने योगबल से सनत्सुजात ऋषि का तत्काल आवाहन किया और उनसे धृतराष्ट्र को उपदेश दिलाया। भला जो विदुर जी इतने दिव्य शक्ति से युक्त थे, वे क्या स्वयं ब्रह्मतत्व का उपदेश नहीं कर सकते थे ? किंतु उन्होंने धर्मगौरव के कारण ऐसा नहीं किया। सनातन धर्म यही बताता है कि आपमें क्षमता चाहे जितनी हो, प्रयोग वहीं पर करें और उतना ही करें जितना शास्त्रोक्त मर्यादा के अंतर्गत हो, क्योंकि जीव की क्षमता तो अनंत है किंतु देहगत अवस्था से कर्मफल के निर्माण एवं उपभोग की संगति होने से देहगत स्थिति का विचार मर्यादा के अनुकूल रहकर उचित कर्मकरना चाहिए।

अतएव सदण्ड संन्यास में अनेकों प्रकार के लोग अनधिकृत हैं जिनमें कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं –

अथ षण्डः पतितोऽङ्गविकलः स्त्रैणो बधिरोऽर्भको मूकः
(संन्यासोपनिषत्)

नपुंसक, पतित (घोर पाप करने वाला), किसी अंग की विकलता के कारण कष्ट में पड़ा हुआ (विकलांग), स्त्री के समान आचरण करने वाला, अथवा स्त्री के आदेश के अनुसार दासवत् आचरण करने वाला, बहरा, अत्यंत बालक एवं गूंगा…

पुनः संन्यास के लिए अनुपयुक्त लोगों के प्रति एक और वेदवाक्य का अवलोकन करें –
षण्डोऽथ विकलोऽप्यन्धो बालकश्चापि पातकी ।
(नारदपरिव्राजकोपनिषत्)
नपुंसक, व्यथित, ‘अन्धा’, बालक एवं पापकर्म से गर्हित …

आश्चर्य है कि ‘अक्षरशः’ अवलोकन का दावा करने वाले महानुभावों को ये सब प्रमाण नहीं दिखते। हमें तो लगता है कि दिखता सब है, सब जानबूझकर सत्य स्वीकार नहीं करते, क्योंकि स्वीकार करने से अपना स्वकल्पित आवरण हटेगा, लौकिक दृष्टि से प्रतिष्ठा हानि होगी, और यदि कह दें कि प्रमाण ही नहीं मिला तो भोले शिष्यगण स्वयं जाकर प्रमाण तो खोजने से रहे …

इसमें कुछ लोग अङ्गिरा एवं कूर्मपुराण के मत से कहते हैं कि संन्यास में सबका अधिकार है –

अन्ध: पंगुर्दरिद्रो वा विरक्तः संन्यसेद्विज:॥
(यतिधर्मसङ्ग्रहे अङ्गिरावचनम्, कूर्मपुराणेऽपि)

अंधा हो, लंगड़ा हो, चाहे दरिद्र हो, विरक्त होने पर ब्राह्मण को सन्यस्त हो जाना चाहिए।

यह मत अधूरा सत्य है। क्योंकि यहां संन्यास शब्द में “आतुर संन्यास” भी आ जाता है, जो मृत्युकाल को निकट जानकर आपत्तिकाल में बिना किसी विशेष विधि, योग्यता एवं मन्त्र के केवल “मैं संसार के बंधन से परे हूँ और ब्रह्मचिन्तन करता हूँ” इस भाव से ले लिया जाता है। आतुर संन्यास वालों को कहीं का पीठाधीश्वर बनने, जगद्गुरु बनने, भाष्य लिखने, यहां तक कि महावाक्यों के उपदेश का भी अधिकार नहीं है। वे केवल विरक्त जीवन बिताने के साथ साथ भगवान् का स्मरण कर सकते हैं।

क्षयक्षीणोऽङ्गविकलो न तु संन्यासमर्हति।
(यतिधर्मसङ्ग्रहे दक्षवचनम्)
कुष्ठ, यक्ष्मा आदि से ग्रस्त व्यक्ति तथा विकलांगता से ग्रस्त जन संन्यास के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

एते नार्हन्ति संन्यासमातुरेण विना क्रमम्
(संन्यासोपनिषत्)
उपर्युक्त अवगुणों से युक्त लोग आतुर संन्यास के अलावा और कोई क्रमपूर्वक संन्यास नहीं ले सकते।

एते संन्यस्ता यद्यपि महावाक्योपदेशे नाधिकारिणः।
(यतिधर्मनिर्णये पुराणोपनिषत्सु वाक्यसारम्)
और इन लोगों ने यदि संन्यास ले ही लिया तो भी महावाक्यों के उपदेश (जो कि दण्डी संन्यासियों का एकमात्र कर्तव्य शेष रह जाता है) के अधिकारी नहीं हैं, यानी व्यासपीठ पर बैठ नहीं सकते।

दण्ड संन्यास के बाद एकमात्र कार्य ब्रह्मचिंतन से अपना मोक्ष एवं तत्सम्बन्धी महावाक्यों के उपदेश से योग्य मुमुक्षुओं का कल्याण करना ही होता है। जो ऐसा करता है, वही सच्चा गुरु है। राजनीतिक स्वार्थ में लुप्त होकर आत्मसम्मोहन के शिकार जनों को हम “देशिक” नहीं मानते।

यदा पश्येत्परं तत्वं तदा मुक्तः स नान्यथा।
स एव देशिको ज्ञेयः संसारर्णवतारकः॥
(विष्णु संहिता, द्वितीय पटल, ५३)

जब उसे (ब्रह्मचिन्तक को) परमतत्व का दर्शन हो जाता है, तभी वही मुक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को ही देशिक* समझना चाहिए जो संसार समुद्र से पार करने में समर्थ हो।

*उपदेष्टा संन्यासी के लिए देशिक शब्द का प्रयोग बहुतायत से होता है।

अब इस प्रसङ्ग के सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण पर आते हैं, जो “अक्षरशः अवलोकन” करने वालों को भी नहीं दिखा। स्वयं आचार्य सम्राट् श्रीरामानंद स्वामी जी लिखते हैं –

विरक्तधर्मनिरतो ध्यानाभ्यासी सुबुद्धिमान्।
निग्रहेऽनुग्रहे चैव समर्थो देशिको मतः॥
हीनाङ्गो ह्यधिकाङ्गश्च कपटी कृष्णदन्तवान्।
नेत्ररोगी च कुष्ठी च वावदूकश्च वामनः॥
व्यसनी बहुनिद्रश्च कुनखी बहुभोजनः।
नेदृशो देशिको योग्यो मुमुक्षोर्मोक्षसाधने॥

(वैष्णवमताब्जभास्कर, परिच्छेद ४)

जो विरक्त भाव को धारण करे, ध्यान का अभ्यासी हो, अच्छी बुद्धि से युक्त हो, निग्रह (पाखंडियों के मत का खण्डन) करने में समर्थ हो, साथ ही अनुग्रह (जिज्ञासु शिष्यों पर ज्ञान की कृपा) करने में भी समर्थ हो, उसे ही मैं ‘देशिक’ मानता हूँ।

जो किसी अंग से हीन हो, जिसमें किसी अंग की अधिकता हो, जो कपट का आश्रय लेता हो, जिसके दांत (अभक्ष्य ग्रहण या रोग के कारण) काले हों, जो नेत्रों का रोगी हो, कुष्ठ से युक्त हो, बकवास करने वाला हो, बौना हो, किसी बुरी आदत का शिकार हो, अत्यधिक सोने वाला हो, विकृत नखों से युक्त हो, बहुत भोजन करने वाला हो, ऐसा ‘देशिक’ मोक्ष की इच्छा रखने वाले शिष्यों के मोक्षसाधन के लिए योग्य नहीं है।

दण्डी संन्यासी स्वयं भी मुक्त होता है और शिष्यों की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है, किन्तु वैष्णवमताब्जभास्कर में स्वयं श्रीरामानंद स्वामी ने उपर्युक्त अवगुणों वाले के संन्यास की योग्यता या मोक्षसाधक मार्ग के कुशल उपदेष्टा होने का निषेध किया है। इसके प्रभाकिरण-भाष्य में नारदपरिव्राजकोपनिषत् का उपर्युक्त प्रमाण भी अक्षरशः स्वीकार किया गया है। इतना ही नहीं, आचार्यत्व के विषय में भी रामानन्द सम्प्रदाय के ही पूर्वाचार्य गुरुओं का निम्न मत है –

नैवाधिकांगसहितो न च व्यंगदेहो, नाचारहीनविविधाश्रमदत्तचित्त:।
नो लम्पटो न च कदाचरणानुरक्तः,
स्वाचार्यध्रुङ् न च न हि प्रमदानुरक्त:॥
श्रद्धान्वितः कर्मपरायणश्च,
गुरौ प्रपत्यातिविशुद्धमानसः।
निर्वृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिविज्ञ,
आचार्यतां याति स वै विरक्त:॥
(श्रीमज्जगद्गुरु रामानंदाचार्य श्री रघुवराचार्य ‘वेदान्तकेसरी’ कृत आचार्यस्मृति)

अधिक अंगों से युक्त, विकृत अंगों से युक्त, आचारहीन, अलग अलग सम्प्रदाय अथवा आश्रमों में भटकने वाला, लम्पट, कुत्सित आचरण करने वाला, पूर्वाचार्यों की निंदा करने वाला तथा स्त्रियों में आसक्त रहने वाला व्यक्ति आचार्यपद के योग्य नहीं है।

जो श्रद्धा से युक्त होकर स्वकर्म को करे, गुरु के प्रति शरणागति के माध्यम से मन को शुद्ध किया हो, सभी इन्द्रियों की विषयात्मिका वृत्ति को जिसने नियंत्रित कर लिया है, ऐसा विरक्त ही आचार्य पद के योग्य है।

इस विषय पर और भी सैकड़ों प्रमाण मैं दे सकता हूँ, किन्तु विषय लम्बा हो जाएगा। विवेकी जन इतने से ही समझ जाएंगे और पुराणों को अर्वाचीन मानने वाले, अंग्रेजों के मत एवं धन से जिनकी मति कुत्सित हो गयी है, ऐसे लोगों को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते, क्योंकि वे लोग स्वयं को शिवजी, हनुमानजी, शेषनाग, वाल्मीकि मुनि, वेदव्यास जी, कालिदास, श्रीधराचार्य जी, जगद्गुरु आद्यवल्लभाचार्य जी, भवभूति, गोविन्दराज जी, नागेशभट्ट जी, जगद्गुरु आद्यमध्वाचार्य जी आदि सबों से भी बड़ा ज्ञानी मानते हैं। जो इन्हें सही लगे सो प्रामाणिक, और जहां जहां इनकी कल्पना टूटे, वो सब प्रक्षिप्त, वाह जी !! अतः मैं इनके कुतर्कों के पीछे अपना और अधिक समय नष्ट नहीं करूंगा।

जैसे सेना में भर्ती होने के समय आपकी देशभक्ति के साथ साथ शारीरिक योग्यता भी प्रधानता रखती है, शारीरिक अयोग्यता के कारण यदि आपको भर्ती न किया जाए तो इसका अर्थ आपका अपमान करना नहीं है, वैसे ही क्रमपूर्वक महावाक्योपदेशक दण्ड संन्यास हेतु भी आध्यात्मिक योग्यता के साथ साथ शारीरिक योग्यता की प्रधानता है, यह एक शास्त्रीय नियम है जिसमें किसी के उपहास या अपमान की बात नहीं आती है। उपर्युक्त वैदिक, पौराणिक, स्मार्त एवं तांत्रिक प्रमाण, जो स्पष्ट होने के बाद भी पक्षपातपूर्ण दृष्टि वालों को नहीं दिख रहे थे, वो मैंने सारभूत रूप से अवलोकित करा दिए हैं। देहान्ध जनों की चिकित्सा कदाचित् हो भी जाये और उनके प्रति सहानुभूति भी हो सकती है किन्तु ज्ञानान्ध जनों का कल्याण दुष्कर ही है। समस्त ज्ञानप्रकाशक आचार्यचरणों में प्रणाम करता हूँ कि सबको शास्त्रालोक की सद्बुद्धि दें।

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru