परमगुरु दत्तात्रेय जी परशुराम भगवान् को कल्याण का मार्ग बताते हुए कहते हैं,
तस्माच्छ्रेयोनिदानं तु सत्संगः प्रथमं भवेत्।
तस्माच्छ्रेयोवाञ्छने तु सत्संश्रयपरो भवेत्॥
(त्रिपुरारहस्य, ज्ञानखण्ड)
कल्याण का प्रमुख कारण है, भले लोगों की संगति। जिन्हें आत्मकल्याण की कामना हो, उन्हें सन्तजनों की संगति में ही रहना चाहिए। क्यों भला ? संत की ही संगति क्यों करें ?
तुलसीदास जी ने भी कहा,
संत समागम हरि कथा, तुलसी दुर्लभ दोय।
सन्तजनों की दृष्टि सदैव गुणातीत होती है। गुणातीत का अर्थ है, तीनों गुणों के विक्षेप से इस संसार की उत्पत्ति तथा उनकी साम्यावस्था से होने वाले संहार की घटनाओं से बिना प्रभावित हुए तटस्थ भाव की दृष्टि से युक्त होना। संतजन तो इस दृष्टि से देखते हैं किंतु संसारी जन नहीं देख पाते। क्यों नहीं देख पाते ?
चेतनत्वं जन्मवत्सु परमं दुर्लभं भवेत्।
सुदुर्लभं तेष्वपि च मानुषं जन्म सर्वथा॥
तत्रापि सूक्ष्म बुद्धित्वमत्यन्तं हि सुदुर्लभम्।
पश्य ब्रह्मन् स्थावराणां शतांशेनापि सम्मितम्॥
न दृश्यते जंगमं वै तेषामपि शतांशतः।
समं नास्ति मनुष्यत्वं तत्रापि परिभावय॥
पशुतुल्याः प्रदर्श्यन्ते मनुष्याणां हि कोटयः।
ये न जानन्ति सदसत् पुण्यं वा पापमेव वा॥
अन्येऽपि कोटिशो मर्त्याः प्रवृत्ता: कामनापराः।
गतागतं रोचयन्ते पांडित्याभासगर्विता:॥
(त्रिपुरारहस्य, ज्ञानखण्ड)
इस संसार में उत्पन्न होने वाले प्राणियों में चेतन प्राणी होना बहुत कठिन है। (वैसे तो समस्त जीवित जन्तुओं में चेतन है, किन्तु यहां चेतन प्राणी का अर्थ ज्ञानेंद्रियों से युक्त पूर्ण अभिव्यक्ति वाले जीवों से है) उनमें भी मनुष्य योनि पाना प्रत्येक प्रकार से कठिन है तथा मनुष्यों में भी तात्विक दृष्टि से किसी विषय पर विचार करने की क्षमता से युक्त होना तो अत्यंत ही कठिन है।
हे ब्रह्मन् ! स्थावर, अर्थात् अचल (वृक्षादि) जीवों की जितनी संख्या है, उसका एक प्रतिशत भी जंगम (चलने फिरने वाले) प्राणी नहीं हैं। जंगम जीवों का एक प्रतिशत भी मनुष्य नहीं हैं। उनमें भी करोड़ों मनुष्य तो पशु के समान ही हैं, जिन्हें सत्य-असत्य, पाप-पुण्यादि का कुछ भी ज्ञान नहीं होता।
इसके अलावा भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनमें कुछ बहुत विवेक तो है किंतु उनकी कामनाएं इतनी बड़ी बड़ी हैं, कि उनके पीछे की प्रवृत्ति मार्ग में जुटे रहकर वे भौतिक भोग अथवा स्वर्गादि लोकों की ओर ही आकर्षित रहते हैं। ऊपर से उनमें अपनी क्षुद्र बुद्धिमत्ता और पांडित्य का अप्रतिम अभिमान भी होता है।
ऐसे में भला जो स्वयं का कल्याण नहीं कर सकता, स्वयं भी पाशमुक्त नहीं हो सकता, वह संसार का मार्गदर्शन कैसे करेगा ? कुछ भाग्यहीन तो ऐसे भी हैं, जिनके पास गुरु का मार्गदर्शन एवं ग्रंथ का आदेश प्राप्त है, किन्तु व्यर्थ के भ्रम, कुतर्क, कल्पना और विषाद के कारण वे भटकते ही रहते हैं। आजकल ऐसे ही कथावाचक, धर्मगुरु, और कथित आध्यात्मिक नेता भरे पड़े हैं।
इसीलिए शास्त्रों में गुणातीत दृष्टि वाले सन्तजनों की ही शरण ग्रहण करने, उनकी संगति को ही प्राथमिकता देने की बात कही गयी है। श्रीरामचरितमानस में राम जी ने माता शबरी को भक्ति का मार्गदर्शन करते हुए, प्रथम भक्ति को संतों का संग करना ही बताया है। प्रथम भगति सन्तन कर सङ्गा । क्योंकि,
येषां समाराधनेन तुष्टा सा स्वात्मदेवता।
ते मायया विनिर्मुक्ता: सुतर्का: श्रद्धया युताः॥
जिन भले लोगों की आराधना से आत्मदेव (परब्रह्म) प्रसन्न हो जाते हैं, उन्हें माया से मुक्ति मिल जाती है, वे शास्त्रसम्मत तर्कों से, ब्रह्मश्रद्धा से भर जाते हैं, एवं मुक्ति-साधन में लीन होकर उसे पा लेते हैं।
संसार की दृष्टि रखने वाले जन एक ही बात जानते हैं, मिठास। वे गुड़ को भी मीठा कहते हैं, गन्ने को भी, दूध को भी, मधु को भी एवं फलों के रस को भी।
आनंदलहरी के द्वितीय श्लोक में आद्यशंकराचार्य जी कहते हैं,
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमाकैरपिपदैर्विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्र विषयः॥
घी, दूध, अंगूर, मधु आदि सभी मीठे हैं, किंतु कौन किस प्रकार का मीठा है, इसकी भिन्नता तो केवल जीभ ही जानती है। इसी प्रकार भौतिक सुख और आत्मानुभूति का सुख किस प्रकार भिन्न है, यह तो अनुभव करने वाला ही जानता है, जिसका वर्णन शब्दों के द्वारा सम्भव नहीं है। अतः आत्मज्ञानियों को यत्नपूर्वक खोजकर उनके मार्गदर्शन के आधार पर आत्मानुभूति करके स्वयं ही उस ब्रह्मानंद का अनुभव करना ही बुद्धिमान् का कर्तव्य है।
विद्वत्ता हि स्वसंवित्तिमात्रवेद्या न चान्यथा।
यथा संस्वादितरसरसज्ञत्वं हि भार्गव॥
तथापि चतुरैर्विद्यावद्भिस्तद्भाषणादिभिः।
वेद्यते हि यथा स्वस्य मार्ग: सूक्ष्मपिपीलकै:॥
(त्रिपुरारहस्य, ज्ञानखण्ड)
हे परशुराम ! शर्बत के मिठास की अनुभूति जैसे पीने वाले को ही होती है, अन्य को नहीं, वैसे ही तत्वज्ञता कि अनुभूति आत्मा को ही होती है, अन्य बाह्यान्तःकरणों को नहीं। फिर भी, जैसे नन्हीं चीटियाँ अपनी राह खोज लेती हैं, वैसे ही चतुर विद्वान् पुरुष, ज्ञानियों की बात सुनकर उन्हें पहचान ही लेते हैं।
आजकल तो सभी लोग ज्ञानी ही बने हुए हैं। जिज्ञासु कम दिखते हैं, सीधे ज्ञानी ही बनते हैं लोग। ऋषिपरम्परागत पीठ, आश्रम, आचार्यमुख की बातों के प्रति अश्रद्धालु होकर स्वयं ही किसी कल्पित संस्था, समाज, परिवार, समिति, पीठ एवं भाष्य का प्रवर्तन करके, शिष्यों के माध्यम से धन बटोर कर आत्मतत्व का उपदेश करने लगते हैं। शास्त्रों में लिखी बातें सत्य हैं, निःसन्देह हैं। किंतु जब तक सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में उतनी तपस्या न की जाए, वे उचित फलदायी नहीं होते। जिस प्रकार पुस्तक में तैरने की विधि को पढ़कर कोई यदि समुद्र के मध्य नाव से कूद पड़े तो विधि को जानकर भी वह स्वयं का उद्धार नहीं कर सकता, वैसे ही वेदोक्त एवं तन्त्रोक्त मार्गों के विषय में भी जानना चाहिए।
पुस्तके लिखितं दृष्ट्वा स्वयं ज्ञात्वा करोति यः।
ब्रह्महत्यासुरापानस्वर्णस्तेयादिपातकै:।
लिप्यते नात्र संदेहो नरके निवसत्यसौ॥
(दक्षिणामूर्ति संहिता)
पुस्तक में लिखित या स्वयं ही अर्थ लगाकर जो शास्त्रोक्त अनुष्ठान को करता है, वह ब्रह्महत्या, मदिरापान, स्वर्णचोरी आदि महापापों से लिप्त होता है, इसमें संदेह नहीं है। साथ ही, उसे नरकगामी भी होना पड़ता है।
हालांकि, इसमें एक विकल्प यह अवश्य है कि पूर्वकाल से जो विधिवत् साधना करता आया है, उचित मार्गदर्शन को प्राप्त करता आया है, जिसने साधनाओं में एक श्रेष्ठ स्तर, विवेक, अनुभव एवं तपोबल को प्राप्त कर लिया, उसे यदि किसी कारणवश, किसी कालविशेष में प्रत्यक्ष गुरु न मिलें और वह मान्य शास्त्रों की विधि को अच्छे से जानता हो तो, देवीरहस्य में शिव जी का वचन है कि यदि योग्य गुरु खोजने ओर भी न मिलें और स्वाध्याय से व्यक्ति को किसी साधना या मन्त्र की उचित विधि का बोध हो और वह उस साधना को करने की भक्ति और शक्ति से युक्त हो तो पुस्तक को ही गुरु मानकर साधना कर सकता है, किन्तु शिव अथवा विष्णु के मंत्रों का ज्ञाता, कुलीन, आचारवान् गुरु प्राप्त होने पर उसका परित्याग करके पुस्तक से मन्त्र लेने वाला शिवहत्या का पापभागी होता है।
अदीक्षित: उपाध्यायविहीन: शक्तिभक्तिमान्।
गुरोरभावे देवेशि पुस्तकं गुरुमाचरेत्॥
यदि कश्चिद्भवेद्देवि गुरु स्तन्त्रविचक्षणः।
दीक्षितः शिवमंत्रेण वैष्णव: शुभलक्षणः॥
तं परित्यज्य यो देवि पराभक्त्योऽपि भक्तिमान्।
पुस्तकं तु गुरुं कृत्वा स भवेत् शिवघातक:॥
(रुद्रयामल तंत्र, देवीरहस्य)
ब्रह्म ने पंचभूतों के द्वारा देह को स्पष्ट करने के बाद, पञ्चतन्मात्राओं से इंद्रियों को स्पष्ट किया। इंद्रियों में यदि तन्मात्रा न रहे तो आंख होने पर भी दिखाई न दे, कान होने पर भी सुनाई न दे। और ये सब किसके अवयव हैं ? प्रकृति के। वह प्रकृति भी स्वयं तीन रूपों में जगत को व्याप्त करती है। एक तो विद्या है, दूसरी और तीसरी अविद्या हैं। विद्या क्या है ? सा विद्या या विमुक्तये। जो जीव को ब्रह्मरूप में पुनः जोड़ दे, वही विद्या है, तथा इस युक्ति का मार्ग ही योगमार्ग कहलाता है।
प्रकृति के अवयव एक दूसरे के ऊपर आश्रित हैं। जीव किसी के ऊपर आश्रित नहीं है। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशित है। वैसे ही जीव स्वयं ही स्थित है, उसकी स्थिति अन्याश्रित नहीं है।
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पञ्च रचित यह अधम सरीरा॥
(रामचरितमानस)
पृथिवीजलतेजांसि वाय्वाकाशौ तथैव च।
सृष्ट्वा मात्राणि तेष्वेव साश्रयाण्यभवन् क्रमात्॥
क्षितौ गन्धो रसो वायु: रूपं तेजसि चाश्रितम्।
वायौस्पर्शस्तथा शब्द आकाशे द्विजसत्तम॥
(बृहद्धर्मोपपुराण, मध्यखण्ड, देवसृष्टि-प्रकरण)
शुकदेवजी ने अपने शिष्यवत् गुरुभाई मीमांसाकार जैमिनी को बताया कि ब्रह्मा जी ने पृथ्वी को गन्धाश्रित बनाया है, जल को रसाश्रित बनाया है, तेज (अग्नि) को रूपाश्रित, वायु को स्पर्शाश्रित एवं आकाश को शब्दाश्रित बनाया है। उपर्युक्त पञ्च तत्वों की अभिव्यक्ति अपने अपने आश्रय से ही होती है। किन्तु जीव की अभिव्यक्ति किसी पर आश्रित नहीं है, अपितु जीव की अभिव्यक्ति शेष तत्वों की अभिव्यक्ति से ऊपर उठने पर स्वयं हो जाती है।
विद्यानगर की परम विदुषी रानी हेमलेखा ने भोगों में आसक्त अपने पति हेमचूड़ को आत्मपद का उपदेश करते हुए कहा था :-
धावन् स्वमूर्द्धच्छायेव न प्राप्यं क्रियया क्वचित्।
यथा हि निर्मलादर्शे प्रतिबिम्बसहस्रकम्॥
पश्यन् बालोऽपि नाऽऽदर्शं पश्यत्येवं जनः खलु।
पश्यन् स्वात्ममहादर्शे प्रतिबिम्बं हि जागतम्॥
स्वात्मानं न विजानाति तद्व्युत्पत्तिविवर्जनात्।
यथाऽपरिचिताकाशः पश्यन्नाकाशसंश्रितम्॥
जैसे अपने शिर की छाया दौड़कर पकड़ी नहीं जा सकती, वैसे ही कर्मपाश में फंसे रहकर आत्मपद का ग्रहण सम्भव नहीं है। अबोध शिशु दर्पण में हज़ारों प्रतिबिम्ब देख लेता है, पर दर्पण को नहीं देख पाता, वैसे ही सामान्यजन आत्मारूपी दर्पण में संसार रूपी बिम्ब को देखते हुए भी अपने आत्मरूप को नहीं देख पाते। आकाश की स्थिति से अनभिज्ञ व्यक्ति आकाश में व्याप्त सम्पूर्ण जगत् को देखता हुआ भी आकाश को नहीं जान पाता, वैसे ही जीव भी अपने स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है।
जगन्नावैति चाकाशं तथा स्वात्मस्वरूपकम्।
नाथ सूक्ष्मदृशा पश्य ज्ञानज्ञेयात्मकं जगत्॥
तत्र ज्ञानं स्वतःसिद्धं तदभावे न किञ्चन।
प्रमाणानां प्रमाणं तदप्रमाणं स्वतो भवेत्॥
यतः प्रमाणानपेक्षामादिसिद्धिमतस्तु तत्।
सिद्धसाधकभावेन न तत्सिद्धि: कदाचन॥
हे स्वामिन् ! आप थोड़ा इस ज्ञान एवं ज्ञेय रूपी संसार को सूक्ष्म दृष्टि से देखें। इसमें जो ज्ञान है, वह तो स्वतः सिद्ध है। (इसीलिए हमारे यहां वेदमन्त्रों की रचना नहीं, दर्शन मात्र हुआ) अगर वह न हो, तो कुछ भी नहीं रह सकता। वह समस्त प्रमाणों का प्रमाण है, किन्तु स्वयं किसी प्रमाण पर आश्रित नहीं, क्योंकि स्वसिद्धि हेतु उसे अन्य की अपेक्षा नहीं (इसीलिए आत्मपद को स्वसंवेद्य भी कहा गया है)। इसीलिए जो स्वतः सिद्ध है, उसकी अलग से, मैं सिद्ध करूँगा, इस भाव से सिद्धि हो ही नहीं सकती।
जैसे, कोई कहे कि अब मैं सूर्य को प्रकाशित करूँगा, अथवा अब मैं दूध को सफेद बनाऊंगा, अथवा अब मैं हिमखंड को शीतल करूँगा, आदि आदि। अब वह कौन सी शक्ति अथवा आवरण है जो जीव को ऐसा करने से रोकता है ? वह है अविद्यात्मिका प्रकृति। प्रकृति के तीन रूपों में प्रथम मोक्षदा विद्या है और शेष दो बंधनकारिणी अविद्या हैं।
प्रकृतिस्त्रिविधा प्रोक्ता विद्याविद्या द्वयं तथा।
अविद्या में भी पहली को मायाशक्ति और दूसरी को परमाशक्ति कहते हैं। मायाशक्ति से तो समस्त जगत् का निर्माण होता है, और परमा शक्ति से जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न देखने लगता है। जैसे घटाकाश एवं मठाकाश में दृष्टिभेद होने पर भी तत्वभेद नहीं है, वैसे ही अविद्यात्मिका प्रकृति की मायाशक्ति घट एवं मठ का निर्माण करती है, अर्थात् संसार को बनाती है।
अविद्याद्वयमुक्तं यन्माया च परमा तथा।
माया ह्यावरिका शक्तिः परमा जीवयोर्मता॥
(बृहद्धर्मोपपुराण, मध्यखण्ड, देवसृष्टि-प्रकरण)
उसी अविद्यात्मिका प्रकृति की परमा शक्ति घटाकाश और मठाकाश के मध्य दृष्टिभेद उत्पन्न करती है अर्थात् ब्रह्म और जीव में भेदबुद्धि उत्पन्न करती है तथा विद्यात्मिका प्रकृति उस दृष्टिभेद को हटाकर मठाकाश एवं घटाकाश की एकता का भास कराती है अर्थात् ब्रह्म एवं जीव की एकता का अवलोकन कराती है। जब भगवती महामाया का सगुणावतार होता है तो विद्याशक्ति की प्रधानता होने से वे मोक्षदा होती हैं।
माया के सन्दर्भ में मान्य शंकराचार्य आदि गुरुजन बताते हैं, मा या इति माया। जो नहीं है, उसकी भी प्रतीति जिससे होने लगे, वह माया है। श्रीमद्देवीभागवत का वचन है कि ऐसी रचना, ऐसी कृति जो कभी पुरानी न हो, प्र अर्थात् नई बनी रहे, वह कृति ही प्रकृति है। श्री परमगुरु दत्तात्रेय जी ने भगवान् परशुरामजी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश करते हुए कहा है कि संसार क्या है ? संसार वस्तुतः दृष्टिकोण का नाम है। यह एक दर्शन है, चिंतन है, विचार है। तात्पर्य क्या है ?
एतद्दृश्यं कार्यभूतमुत्पत्तेरुपलम्भतः।
उत्पत्तिर्नूतनाभासः प्रतिक्षणमिदं जगत्।
नूतनत्वेनैव भाति तत्क्षणोत्पत्तिमज्जगत्॥
(त्रिपुरारहस्य, ज्ञानखण्ड)
(यह सारा दृश्य जगत् मात्र एक दृष्टिकोण ही है, और कुछ नहीं) यह किसी (ब्राह्मी शक्ति) का काम है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति देखी जाती है। नवीन रूप में किसी वस्तु का प्रतीत होना ही उसकी उत्पत्ति है, तथा उसका परिवर्तित हो जाना ही अनित्यता एवं संहार है। अतः यह नश्वर संसार स्वयं अनित्य होकर नित्य आत्मपद का बोध कराने में सर्वथा असमर्थ है।
यदि आप कृषक हैं, अध्यापक हैं, अथवा चिकित्सक हैं, तो संसार को देखने की दृष्टि, आपके सामाजिक जीवन, मित्रमंडली, व्यवहार, आदि की शैली भिन्न होगी। उसी प्रकार एक धर्मगुरु की दृष्टि, एक ज्यौतिषी की दृष्टि, एक वैज्ञानिक या आतंकवादी की दृष्टि, एक शासक अथवा सेवक की दृष्टि, सामाजिक जीवन, विचार और इच्छा आदि सब कुछ एक दूसरे से भिन्न होंगे। इन सबके लिए संसार की परिभाषा, अपेक्षा एवं संरचना भिन्न भिन्न है। अतएव संसार की समस्या तथा उसके समाधान, दोनों ही मात्र दृष्टिकोणों से ही उत्पन्न होते हैं, तथा दृष्टिकोणों से ही निरस्त कर दिए जाते हैं। यह दुर्लभ मानवीय चेतना उत्तम दृष्टिकोणों से युक्त रहे, इसके लिए कल्याणकारिणी सत्संगति का अवलम्बन करना प्रत्येक जीव का परम् कर्तव्य है।
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru